Monday, July 27, 2020

कोरोना वायरस की भयानकता और अवैज्ञानिक अफरा तफरी में फायदा किसका ???

 डिस्क्लेमर : इस आर्टिकल का उद्देश्य बीमारी को लेकर किसी प्रकार की लापरवाई को प्रमोट करना बिलकुल भी नहीं है , साफ़ सफाई , पब्लिक प्लेस पर मास्क और शारीरिक दूरी का पालन करें। साफ़ सुथरी जीवन शैली कई बीमारियों से बचाती है (हालाँकि मज़दूरों  के रहने की परिस्थिति इतनी भयावह है की साफ़ सफाई और शारीरिक दूरी की बात भूल ही जाईये ) . साथ ही डरें बिलकुल नहीं ।  वैज्ञानिक सूझ बूझ  के साथ बीमारी से निबटे।  इस आर्टिकल का उद्देश्य बीमारी को लेकर  किसी भी  प्रकार के षड्यंत्र सिद्दांत की पैरवी करना भी बिकुल नहीं है। आर्टिकल में प्रस्तुत विचार भी पूर्ण तौर पर निजी हैं , जिनका किसी संगठन से कोई लेना देना नहीं है।

किसी बीमारी को लेकर डर फैलाना ज्यादा सूझबूझ का काम है या वैज्ञानिक सोच के साथ सही जानकारी देना एवं कोरोना जैसी बीमारी के समय में में आमजन की ज़िन्दगी आसान बनाना ? मेरी राय में दूसरी बात सही है , लेकिन हमारी पूंजीवाद द्वारा पोषित बड़ी बड़ी स्वास्थ्य संस्थाओं ने पहला काम ज्यादा किया। इन्होने डर फैलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। किसी बीमारी के बारे में डर को २ तरह की मानसिक बीमारियों का नाम दिया गया है 1. Hypochondria , 2. Nasophobia . पहली के केस में व्यक्ति को मामूली लक्षण आते है तो वो किसी बड़ी बीमारी होने का भ्रम पाल लेता है और नाहक ही अवसाद का शिकार हो जाता है , दूसरे केस में बिना लक्षण के भी व्यक्ति बीमार होने के भय में जीता है और उसे हमेशा ये लगता है की उसे अमुक बीमारी न हो जाए। कोरोना के केस में मैं कहूंगा की कम या देर से दी जा रही जानकारियों ने एक बड़ी आबादी को इन दो बीमारियों का शिकार बना दिया है।  और ऐसा लगता है की फेसबुक पर भी कुछ लोग इस डर को बढ़ावा देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं , वे इस डर की आग में घी डालने के लिए दुनिया के किसी कोने में होने वाली छोटी सी रिसर्च को भी शेयर करने से नहीं चूकते , साथ ही कोरोना के ठीक होने के बाद के प्रभाव को भी ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे पता नहीं कितना भयानक है ये।  अमूमन स्वाद और सूघने की शक्ति को ही ले लीजिये , हम सब बचपन से ये जानते हैं की जुकाम होने पर सूघने की शक्ति ख़त्म हो जाती और और स्वाद भी महसूस होना बंद हो जाता है , अगर जुकाम और बुखार ठीक होने में ज्यादा वक़्त लगा दे और आपको हैवी एंटीबायोटिक खानी पढ़ जाए तो कमज़ोरी आना भी लाज़िमी है जिसके जाने में महीना भर लग सकता है , लेकिन कोरोना के केस में यही लक्षण ऐसे भयानक तरीके से पेश किये जा रहे हैं जैसे पता नहीं कौन सी आफत टूट पड़ेगी। हाँ अगर आप Hypochondria या Nasophobia से ग्रसित हैं तो निश्चय ही ऐसा कर सकते हैं।

  हालाँकि पिछले आर्टिकल में मैंने  कोरोना के IFR  को फ्लू के CFR  से तुलना कर दी थी जो की गलत है , तुलना समान मानकों की ही होनी चाहिए।  इसलिए इस जानकारी को दुरुस्त करते हुए आपको बता दूँ की फ्लू का CFR 0.1 फीसदी है जबकि कोरोना का अब तक ज्ञात आकंड़ो के हिसाब 3 -4 फीसदी है जो की फ्लू से कंही जायदा है. हालाँकि ये आंकड़े अभी आखिरी आंकड़े नहीं हैं , भारत में अब तक की जानकारी के हिसाब से CFR 2.3 फीसदी और IFR 0.07 फीसदी  है।
कुछ लोगों ने दिल्ली में हुए सेरोलॉजीकल सर्वे को बड़े ही हास्यास्पद तरीके से NCDC के फ्लू के आकंड़ो के से कम्पेयर कर दिया और अपनी सुविधा के अनुसार आकंड़ो को चुन लिया।  जबकि फ्लू की रिपोर्ट पर गौर किया जाए तो ये यकीन करने लायक तो बिल्कुल भी नहीं लगते , फिर इन आकंड़ो के आधार पर आपको फ्लू का इंडिया में CFR बता देता हूँ :
साल 2016 में 14.72
साल 2017 में 5.84
साल 2018 में 7.39
साल 2019 में 4.22
साल 2020 (23 फरबरी तक ) 1.5

अब इन आकड़ो को देखकर आप समझ ही गए होंगे की यह कितने हास्यास्पद हैं। खैर छोड़िये आंकड़ों की बाज़ीगरियाँ तो चलती रहेंगी और अपनी सुविधा अनुसार सब इनका इस्तेमाल करते रहेंगे और एक दूसरे तो मुर्ख , महामूर्ख , दोगले , चुगद , कोवीडिअट्स , कोविफूफ  , षड्यंत्र सिद्धांतकारी से लेकर पानी उबालने और  दक्षिण पंथियों की चड्डी तक बहस का स्तर ले जाते रहेंगे। इसलिए मेरी तरफ से आकड़ों की बसह को फिलहाल विराम , कुछ महीनो में ही कोरोना को लेकर भी सही तस्वीर सबके सामने होगी।

 खैर अब देखते है बीमारी को लेकर डर फैलाना कितना वाजिब है और इससे पूंजीवादी व्यक्स्था एक्सपोज़ होगी या नहीं।
 आप किसी डॉक्टर के पास जाईये और वो आपको आधे अधूरे फैक्ट्स बता दे और कहे ये तो बहुत गंभीर बीमारी है , लेकिन अफ़सोस इसका कोई इलाज़ नहीं सोचिये क्या हालत होगी ? वंही दूसरी तरफ सही तरीके से वैज्ञानिक तर्क के साथ बीमारी  के बारे में समझाए और संभव इलाज़ के तरीके बताये तब निश्चय ही आप अच्छा महसूस करेंगे। यही बात कोरोना को लेकर भी सत्य है। CDC जैसी  संस्थाओं ने सही जानकारियों को सामने लाने में इतना वक़्त लगा दिया कि ये व्यवस्था लोगों में डर पैदा करने में कामयाब हो गयी।  WHO अभी भी जिस तरह से जानकारियां सामने ला रहा है उससे यह साफ़ है , कि  इन संस्थाओं का आम जन  जीवन सरल सुलभ बनाने से कोई वास्ता नहीं। यही कारण है की इनकी भूमिका संदेहास्पद हो जाती है।

जानकारियों की कमी ही मुख्य वजह थी की मौजूदा फासिस्ट सरकार आनन् फानन में लॉकडाउन करने  में सफल रही और लोगों को यह भरोसा भी दिला दिया की लॉकडाउन की एकमात्र रास्ता है , जबकि इस विषय पर ICMR फरवरी माह में एक पेपर पब्लिश कर चुका था और कह चुका था कि भारत में सम्पूर्ण लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं है । उसके बाद जो हुआ वो  सबके सामने है :
1. मसलन मज़दूरों का पैदल भूखे प्यासे घर की तरफ चल देना , श्रम कानूनों का खात्मा , पूँजीपतिओं को अपनी मनमर्ज़ी करने की छूट और पुलिस को खुलेआम जनता का दमन करने की छूट।
2. डर के माहौल ने कई तरह से  सामजिक माहौल भी ख़राब किया , कई गॉंवो में बहार से आने वाले लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया गया , कई नर्सो और डॉक्टरों के साथ उनके मकान मालिकों ने बुरा बर्ताव किया घर में घुसने  से रोका एक तरह से इंसान को इंसान का दुश्मन बना दिया।
3. डर और सही जानकारी की कमी की वजह से कई जगह  लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया , और मज़दूरों के ऊपर केमिकल तक छिड़क दिए।
4. शुरुआत में उम्रदराज़ लोगों के लिए ऐसा डर का माहौल बनाया गया की अगर उन्हें कोरोना हो गया तो  मौत निश्चित है , जबकि  अब यह साफ़ साफ़ पता चल गया है कि यह सिर्फ स्वास्थ सुविधाओं की बात है , नहीं तो ७७ साल के अमिताभ बच्चन से लेकर बोलसनारो जैसे लोग भी ठीक हो रहे हैं।  लेकिन आमजन के लिए डर के माहौल में स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रश्न कंही पीछे छूट  गया।
5. डर का आलम ये था कि पॉजिटिव आने पर कुछ मरीज़ों ने हॉस्पिटल की छत से कूद कर सुसाइड तक कर ली।
6. निजी अस्पताल और डॉक्टर अपने क्लिनिक बंद करके बैठ  गए और सामान्य मरीज़ो को भी इलाज़ मुहैया नहीं हो पाया।  कई गर्भवती महिलाओं और गंभीर मरीज़ों की मौत भी हो गयी।

अगर वैज्ञानिक सूझ बूझ  निर्णय लिए गए होते और लॉकडाउन जैसे जनविरोधी काम न करके छिटपुट लॉकडाउन और कांटेक्ट ट्रेसिंग का काम किया जाता तो स्तिथि काफी अलग होती। हालाँकि विश्व में कई देश ऐसे हैं जिहोने इस महामारी को कण्ट्रोल करने के लिए काफी सूझ बूझ से काम लिया , लेकिन उनकी स्टडी और कार्यप्रणाली आपके सामने नहीं लायी जायेगी। 

आप कह सकते है की कोरोना के नाम पर पूंजीवादी स्वास्थ्य सेवाओं को पर्दाफाश हो जाएगा और हमे इसका फायदा उठाना चाहिए , यह सच है की पूँजीवाद को एक्सपोज़ करने का कोई मौका हमे नहीं छोड़ना चाहिए , लेकिन यंहा मामला उल्टा जान पड़ता है।  जिस तरह से वायरस की भयावहता को प्रचारित किया गया उससे फासिस्ट सरकारें जनता को यह यकीन दिलवाने में कामयाब हो गयी की ये इतना भयानक वायरस है की हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इसमें कुछ नहीं कर सकती और लॉकडाउन ही एकमात्र रास्ता है , आपको याद होगा दूसरे लॉकडाउन के अनाउंसमेंट के वक़्त बड़ी चालाकी से प्रधानमन्त्री यह बोल देता है कि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं विकसित देशों के मुक़ाबले बहुत पीछे है और लॉकडाउन ही एकमात्र रास्ता है।  अपने  इस बयान से प्रधानमंत्री आम जनता को यह यकीन दिलवाने में कामयाब हो गए कि स्वास्थ्य सेवाएं इस वायरस के लिए कुछ नहीं कर  सकती और पूरे देश को सिर्फ 500 केस होने पर लॉकडाउन में झोंक दिया , और बाद में लोग यह कहते हुए भी देखे गए कि मोदी जी ने उन्हें बचा लिया वार्ना तो मौत निश्चित थी। इस तरह देखा जाए तो प्रधानमन्त्री खुद ही अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को एक्सपोज़ करके चले गए अब आप उन्हें क्या एक्सपोज़ करेंगे , बल्कि उलटे अतिरेक डर में लोगों को इसमें कुछ गलत भी नहीं लगा। 

अब देखते हैं कि बीमारी को लेकर फैलाया गया डर पूंजीपतियों के लिए फायदे का सौदा रहा या घाटे का ??इसके लिए थोड़ा पीछे चलते है , साल 2019 में ही हम सबको पता था की अर्थव्यवस्था संकट के दौर में है , बेरोज़गारी बढ़ रही है , ऑटोमोबाइल और टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज मंदी की चपेट में आ चुके है  और आने वाले समय में यह संकट और गहरा होता जा  रहा था , CAA और NRC को लेकर विरोध प्रदर्शन अपने चरम पर थे और इसमें शामिल लोगों का गुस्सा व्यवस्था के प्रति साफ़ दिख रहा था। और इन सबके बीच आगमन होता है कोरोना का और भारत सरकार बढ़ी चालाकी से पहले एक दिन का लॉकडाउन करती है और लोगों से ताली थाली बजाने को कहती है और आपको याद होगा सारे पूंजीपति एक स्वर में इसका समर्थन करते दिखे और सबने बढे उत्साह से थाली बजायी।  इस घनघोर समर्थन के बाद जब कोरोना के केस महज 500 थे आपके सामने Covid-19 को बहुत ही भयावह तरीके से पेश किया गया और 21 दिन का लॉकडाउन कर दिया गया।  आपको याद होगा इज़ारेदार पूंजीपतियों ने इस कदम का भी खुली बाहों से समर्थन किया , कोरोना के नाम पर विश्वभर में समर्थन पा चुके शाहीन बाग़ प्रोटेस्ट को चुपके से उखाड़ दिया गया। इसके साथ ही पीएम केयर फण्ड का आगमन होता है और पूंजीपतियों से लेकर फिल्म स्टारों तक इसमें दान करने ही होड़ लग जाती है।
 यह सच है की उत्पादन कम हुआ है लेकिन देखा जाए तो इस पूरी महामारी में इज़ारेदार पूँजीपतियों की स्तिथि क्या रही ?
 छोटे उद्योगों को तबाह कर इस पूंजीवादी व्यवस्था की मोनोपोली की तरफ एक लम्बी छलांग नहीं है क्या ? अमेरिकन पूंजीपतियों ने खुले मन से भारत की तरफ पूँजी न निर्यात करना शुरू कर दिया , और इसी क्रम में मुकेश अम्बानी जैसे लोग अमीरों की सूचि में 5वे नंबर पर पहुंच गए।  अमेरिका में भी अमेज़न जैसी कंपनियों के मालिकों ने जमकर पैसा कमाया।  जब पीएम 20 लाख करोड़ के पैकेज का अनाउंसमेंट करते हैं तो महिंद्रा जैसे पूंजीपति समर्थन में ताली बजाते हुए कहते है की यह तो 1991 में हुए सुधारों जैसा है, मुझे रात भर नींद नहीं आयी ऐसे सुधार सुनकर।  तो अगर देखा जाए भारत में पूंजीपति वर्ग पूर्ण रूप से लॉकडाउन के समर्थन में ही था।  अगर आप कहेंगे नहीं ऐसा नहीं था तो क्या मैं ये मान लूँ की भारत की सरकार इतनी निरंकुश हो गयी है जो अपने मालिकों की बात भी न माने ?
इसके साथ ही करोड़ों मज़दूर जो गांव बापस लौट गए थे वो धिरे धिरे अब बापस शहरों की तरफ लौटने लगे है , लेकिन अब परिस्थियाँ काफी बदल चुकी है और इस संकट में मज़दूर अपने श्रम की क्रय शक्ति खो चुका है और अब वो पूंजीपति को आने पौने दामों में श्रमशक्ति बेचने को मज़बूर होगा  और पूंजीपति की शर्तों पर काम करने को भी मज़बूर होगा। 
और लॉकडाउन के समय में भी मज़दूरों की छटनी बदस्तूर ज़ारी थी , लेकिन गुडगाँव में काम करने वाले एक कार्यकर्ता बताते हैं की लगभग 70 फीसदी मज़दूर गांव चला गया है तो ऐसी स्तिथि में कोई आंदोलन भी खड़ा नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में साफ़ पता चलता है की इसके दूरगामी परिणाम किसके पक्ष में जाएँगे। और सरकारें अपनी नाकामी का सारा ठीकरा कोरोना के सर पर फोड़ देंगे और खुद को साफ़ बचा लेंगी.

अब एक और बात , कोरोना पर पूंजीवादी एजेंसियों पर सवाल उठाने वालों को एक ही झटके में दक्षिणपंथियों के साथ खड़ा कर दिया जाता है , कुतर्कों और बेहूदा बातों की रेलमपेल करनी  शुरू कर दी जाती है और ज़बरदस्ती अपने शब्द आपके मुँह में ठूसने की कोशिश करने लगते है. तो पहले समझ लेते हैं कि दक्षिणपंथियों का स्टैंड क्या है , शुरूआती दौर में ट्रम्प ने WHO और चीन पर खूब इलज़ाम लगाए और एक चीन विरोधी माहौल बनाया और इंडिया के दक्षिणपंथियों ने भी वही फॉलो किया , लेकिन गौर करने वाली बात यह है की इंडिया के दक्षिणपंथियों ने लॉकडाउन का विरोध कभी नहीं किया उलट उन्होंने सरकार की बात पूरी निष्ठां से मानी और डर के माहौल का भी प्रचार किया।  साथ ही दक्षिणपंथी आज भी यही राग अलाप रहे हैं की ये चीन की साज़िश है , चीन पूरी दुनिया को परेशानी में डॉल  अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है और WHO इसमें उसकी मदद कर रहा है।  लेकिन अगर सही नज़रिये से देखा जाए तो क्या ऐसा वास्तव में हो रहा है , बिलकुल नहीं , इसके उलट इस पूरे माहौल का फायदा दुनिया के दक्षिणपंथी और उनके समर्थक इज़ारेदार पूंजीपति ही उठा रहे हैं , अमेरिका पूरी दुनिया में चीन विरोधी माहौल बनाने में सफल रहा और चीनी कम्पनियों के खिलाफ लामबंदी को बखूबी अंजाम दिया , भारत चीन सीमा विवाद को इतने दिनों से नाहक ही बढ़ावा दिया जा रहा है और स्थिति सामान्य होने देने की वजाय अमेरिका उसमे आग में घी डालने का काम कर रहा है और भारत की फासीवादी सरकार उसका पूरा सहयोग कर रही है।  अब एक तो चीन विवाद और साथ में कोरोना जैसी महामारी , अकेले मोदी करें तो क्या , किस किस से निबटे ? बस इतना माहौल काफी है जनता के बीच अपनी मज़बूरी साबित करने के लिए।  बाकी पूरा मीडिया है ही प्रचार के लिए जो जल्द ही जनता को यकीन दिला देगा की सरकार ने अपनी पूरी कोशिश की बीमारी से निबटने की लेकिन बीमारी है ही इतनी भयानक की कुछ किया नहीं जा सकता। यही काम फेसबुक पर आजकल कुछ लोग जोर शोर से करने में लगे हुए हैं।  साथ ही कोरोना की आड़ में किये जन  विरोधी कामों को भी अगर षड़यंत्र सिद्धांत कहा जाए तो भी आजकल कुछ लोगों को ऐसी मिर्ची लग जाती है जैसे ये फासिस्ट सरकारें और पूंजीपति उनके अपने सगे हों , जैसे इन्होने कभी षड्यंत्र सिद्धांतों पर यकीन ही नहीं किया , ऐसा माना  जाये तो फिर तो नाहक ही ये लोग CIA जैसी संस्थाओं पर षड़यंत्र करने का आरोप लगाते रहे , या अब इन्होने अपना स्टैंड बदल लिया है ????
जबकि कई देशो ने कोरोना के लिए काफी सही रणनीति अपनायी और बहुतायत आबादी को परेशानी में डाले बिना बीमारी पर कण्ट्रोल भी कर लिया , और ये भी सच है की इन देशो में मृत्यु दर भी काफी कम देखने को मिली  है। 
लिखने को अभी CAA/NRC और जन आन्दोलनों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है और उनका क्या हाल हुआ या किया गया कोरोना की आड़ में।  बाकी जैसा मैंने कहा बीमारी को लेकर अगले कुछ ही महीनों में सारे आकंड़े साफ़ हो जाएंगे , उसी तरह इस पूरी महामारी का फायदा किसने उठाया यह भी जल्द ही साफ़ हो जाएगा। तब जो स्थिति होगी उसे खुले मन से स्वीकार किया जाएगा  तब तक इन छीछालेदर वाली बहसों से अवकाश। बीमारियों से बचाव अति आवश्यक है और ऐसे दौर में जब  पूंजीवादी चिकित्सा व्यवस्था को आपके स्वास्थ्य से ज्यादा अपने मुनाफे की चिंता हो।
 




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