Monday, December 24, 2012

स्त्री विरोधी सामाजिक माहौल ज़िम्मेदार है बलात्कार जैसी घटनायों के लिए

अपराध का प्रश्न कानून  व्यवस्था से हल नहीं किया जा सकता . अपराध पैदा होता है सामाजिक व्यवस्था और माहौल  से . और बलात्कार की हाल में ही हुई घटना के बाद से मैं यही सोच रहा हूँ की क्या धरना प्रदर्शन में शामिल लोग वास्तव में लड़कियों के प्रति अपनी मानसिकता बदलने के लिए तैयार है? अगर हाँ तो ये लोग  तब  क्यों कोई प्रश्न नहीं उठाते जब मीडिया से लेकर फिल्म जगत तक लड़कियों को एक माल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है रोज़ अखबारों में अधनंगी तस्वीरों में लड़कियों को उपभोग की वस्तु  के रूप में दर्शाया जाता हैं  . तब तो सारे लोग बड़े मज़े से "मुन्नी ","शीला ","चिकनी चमेली ", "फेविकोल से" और न जाने क्या क्या  की जवानी पर आहें भरते नज़र आते हैं . और इन  फूहड़ और अश्लील गानों को कलाकार की कला कहकर खुश हो जाते हैं . जब खुलेआम डेल्ही टाइम्स जैसे अखबारों में लड़कियों को " बोम्ब ", टोटा या हॉट कहकर संबोधित किया जाता हैं , और   रेडियो चैनल पर भी दिनभर कुछ ऐसा ही प्रचारित किया जाता है तब यह सारी  जनता कंहा  चली जाती है , वास्तव में तब तो लोग इन सारी चीजों से बहुत खुश होते हैं और इंजॉय करते हैं . आजकल के युवा वर्ग से आप मिलकर देखिये तो आपको पता चल जायेगा की की लड़कियों के बारे में उनके क्या विचार है . और कई बार तो लड़कियां इस अश्लीलता का समर्थन करती नज़र आतीं हैं , उन्हें यह नहीं पता की ये आधुनिकता नहीं है , वास्तव में यह आधुनिकता के नाम पर लड़कियों का सामाजिक अवमूल्यन हैं , इस अश्लीलता के द्वारा उनका अमानवीकरण करके उन्हें उपभोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है . वास्तव में पूंजीवादी समाज सारे प्रचार तंत्र का इस्तेमाल करके युवा वर्ग को जो आधुनिकता सीखा रहा वह आधुनिकता  होकर अश्लीलता हैं . समाज में स्त्रियों को एक तरह से सेक्स की मशीन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिसके एक एक पुर्जे को सजाने सवारने केलिए भिन्न भिन्न प्रकार के उत्पाद मौजूद हैं . और उन उत्पादों का प्रचार ऐसे किया जायेगा की अगर आज के समाज में आप सेक्सी नहीं दिखती तो आपका जीवन बेकार है . अगर आप ऐसे माहौल को स्वीकार कर लेते है तब इंडिया गेट पर जाकर चीखना बेकार है ऐसे माहौल में न जाने लोग कितनी ही लड़कियों का मन ही मन रोज़ बलात्कार करते हैं . इसलियें जरूरी है की पुरुष पहले स्त्रियों का सम्मान करना सीखे और स्त्रियाँ भी अपने सम्मान  करवाने  का बीड़ा उठायें और उन्हें वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने वाले इस प्रचार तंत्र का विरोध करें . जबतक स्त्री विरोधी सामाजिक मानसिकता नहीं बदलेगी इस तरह की घटनायें होती रहेंगी .

Friday, November 2, 2012

महिलाओं कि मानसिक गुलामी का प्रतीक है पर्व करवाचौथ



करवाचौथ का पर्व फिर से आ गया है और मध्यवर्ग की  महिलाओं में अच्छा खासा उत्साह देखने को मिल रहा है . पिछले दो दिनों से ही करवाचौथ की तैयारियाँ  शुरु है, हाथो में कोहनी तक मेहदी पोत ली गयी है . अब चूँकि बीवी शाम तक भूखी रहेगी तो पति को भी कोई महंगा गिफ्ट आइटम खरीदना ही पड़ेगा. चलिए पहले इस पर्व के वास्तविक अर्थों पर बात कर लेते है " जैसे इस दिन महिलाएं अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती है है और शाम को चन्द्रमा के उदय होने के बाद पहले चाँद को देखती है फिर पति को और पूजा अनुष्ठान पूरा करती हैं तब जाके कंही भोजन करती है . पहली बात तो यह की ये बड़ा ही हास्यास्पद  लगता है की आज से बहुत पहले ही इन्सान चाँद पर कदम रख चूका है तो उसको देखकर फिर पति की तुलना चाँद से की जाये और चाँद के सामने पूजा अनुष्ठान किया जाये. और दूसरी बात ये है की महिलाओ  ने ही सारे पूजा अनुष्ठानो की जिम्मेदारी उठा राखी है , कभी पति लम्बी उम्र के लिए और कभी बच्चे की. वस्तुत इन सबसे कुछ होना है नहीं अपितु ये परोक्ष  रूप से ये महिलाओ  की मानसिक गुलामी को दर्शाती हैं . जैसे पुराने समाज में गुलाम भी अपने मालिक को ही सबकुछ समझता था और अपनी गुलामी में ही सुख अनुभव करता था . वही हाल आज की महिलाओ  का है वे पुरुष प्रधान समाज की गुलामी को स्वीकार  कर चुकी है और ये सारे व्रत वगैरह  रखकर बड़े सुख का अनुभव करती हैं. मध्यवर्ग के इस उत्साह के पीछे एक दूसरा पहलु भी है , वो है आज की बाजारवादी मानसिकता .  सच्चाई यह है की पूंजीवादी मीडिया लोगो की छिछली भावनायों का अच्छा इस्तेमाल करती है . आजकल जितने भी इस प्रकार के पर्व है उनका मीडिया द्वारा खूब  प्रचार किया जाता है और नए नए गिफ्ट आइटम्स की बाज़ार में भरमार आ जाती है . और ग्लैमर की चकाचौध  भी इस मानसिकता को बढावा देने में काफी काम आती है जिसके चलते आजकल की फैशनबल  पीड़ी भी इन त्योहारों को अच्छा खासा तवज्जो देने लगा है . वस्तुत यह भी महिलाओ   को मानसिक ग़ुलाम बनाने का ही एक तरीका है जो उन्हें पुराने रुडिवादी संस्कारों  से जोड़े रखता है और उनकी मानसिकता को विकसित नहीं होने देता . इस तरह उपभोक्तावाद की संस्कृत तो बन ही जाती है और महिलाएं भी जाने अनजाने पुरुषों की गुलामी स्वीकार कर ही लेती हैं . महिलाओं को यह समझना होगा कि पति पत्नी का रिश्ता वास्तविक अर्थो में तभी समझा जा सकता है जब पुरुष समाज भी महिलाओं  कि इज्ज़त करना सीख ले . जब तक महिलाओं को उपभोग कि वस्तु समझा जाता रहेगा तब तक इस तरह के पर्व त्यौहार महिलाओं के सामाजिक अवमूल्यन को ही दर्शाएंगे . महिलाओं को अपनी सोच बदलने कि जरुरत है ताकि वे समाज में अपनी स्वतंत्र उपस्थिति दर्ज करवा सके , न कि हमेशा पुरुषो के लिए उपभोग कि वस्तु बनी रहें .

Saturday, October 13, 2012

युवाओ को समझना होगा समाज के प्रति दायित्व

आज के इस ऩिराशा पूर्ण अंधकारमय समय में अक्सर युवाओ को यह कहते सुना जा सकता है की उन्हें समाज से क्या मतलब, समाज ऐसे ही चलता रहा है और चलता रहेगा हमें अपना कैरिअर बनाना है और यह विचार भी युवाओ में ऐसे नहीं पल गए वस्तुत आज की उपभोक्तावादी , बाजारवादी शक्तियां मीडिया  साहित्य और फिल्म जगत का बखूवी इस्तेमाल लोगों को व्यतिवादी बनाने में कर रही हैं . सोचने वाली बात तो यह है की मनुष्य प्राणी जगत में सबसे श्रेष्ठ इसीलिए माना  गया है क्योंकि वह समाज में रहता है और एक दुसरे की जरूरतों को पूर्ण करता है किन्तु अगर हम समाज से ही  अलग हो जायेंगे तो हम मनुष्यता की पहली शर्त को ही नकार देते है . दूसरी बात यह है की आप चाहे जितना भी समाज को नकारने की कोशिश करें किन्तु आपके जीवन का हर एक पल समाज एवं राजनीति से ही निर्धारित होता है . 
आज के समय में जब हम ऐसे मोड़ पर खड़े है जन्हा ८०% जनता भुखमरी की कगार पर खड़ी है , पड़ा लिखा युवा वर्ग बेरोजगारी का शिकार है . जन्हा आये दिन  हजारों बच्चे कुपोषण  की वजह से मर जाते है , जन्हा महगाई की हालत ये है की आम आदमी का जीना मुस्किल हो गया है , महिलाएं जन्हा वेश्यावृति के लिए मजबूर हो और आये बलात्कार जैसी घटनाये आम बात हो गयी हो उस समय ऐसा कैसे संभव है की आप व्यक्तिवादी होने की बात करें. व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता सारी आवश्यकताएं समाज के द्वारा ही पूरी होती हैं और इसीलिए हर व्यक्ति की पहली ज़िम्मेदारी समाज के प्रति ही होती है . और जब समाज ऐसे ज्वलंत मोड़ पर खड़ा हो तब युवाओ की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वे आगे आयें और सही क्रांतिकारी योजना को समझकर जनता तक अपनी बात ले जाये . उन्हें यह सन्देश हर एक व्यक्ति तक ले जाना होगा की समाज की इस हालत की ज़िम्मेदार यह पूंजीवादी व्यवथा है और इसको नष्ट किये वगैर कोई वेहतर समाज संभव नहीं है. 
इसलिए वह युवा जो मानता है की मनुष्य का अस्तित्व समाज के बिना संभव नहीं है उसे यह कार्यभार अपने कंधो पर लेना ही होगा . नहीं तो व्यक्तिवादी अराजनैतिक मनुष्यों के लिए जर्मनी के लेखक बेर्तोख्त ब्रेख्त ने कहा ही है ---
"
सबसे जाहिल व्यक्ति वह है जो राजनीतिक रूप से जाहिल है। वह कुछ सुनता नहीं, कुछ देखता नहीं, राजनीतिक जीवन में कोई भाग नहीं लेता। लगता है उसे पता नहीं कि जीने का खर्च, सब्ज़ि‍यों की, आटे की, दवाओं की क़ीमत, किराया-भाड़ा, सब कुछ राजनीतिक फ़ैसलों पर निर्भर करता है। वह तो अपने राजनीतिक अज्ञान पर गर्व भी करता है, और सीना फुलाकर कहता है कि वह राजनीति से नफ़रत करता है। उस मूर्ख को पता नहीं कि राजनीति में उसकी ग़ैर-भागीदारी का ही नतीजा हैं, वेश्याएँ, परित्यक्त बच्चे़, लुटेरे और इस सबसे बदतर, भ्रष्ट अफ़सर तथा शोषक बहुराष्ट्रींय कंपनियों के चाकर।"
हाँ जन्हा तक  निराशा की बात है तो यह सच है की आजादी के साठ साल पुरे हो जाने के बाद भी अभी तक कुछ नहीं बदला और न ही समाज में बड़े स्तर पर ऐसी कोई क्रांतिकारी ताक़त मौजूद है जो इसे बदल सके लेकिन इससे यह हो साबित नहीं हो जाता की ऐसा संभव ही नहीं है . और इस बात का गवाह इतिहास है की बहुत निराशापूर्ण समय के बाद ही क्रान्तिया संभव भी हुई हैं  इसलिए बेहतर यह है की निराश होने की वजाय लोग अपनी ताक़त को पहचाने और इस व्यबस्था को बदलने के लिए आगे आयें
.

Tuesday, October 9, 2012

A poem on fasism

भूतो के झुण्ड गुजरते हैं

कुत्तों - भैंसों पर हो सवार

जीवन जलता है कन्डो- सा

है गगन उगलता अन्धकार


यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का

उन्माद जगाया जाता है

नरमेघ यज्ञ में लाशों का

यूँ डेर लगाया जाता है

यूँ संसद में आता बसंत

यूँ सत्ता गाती है मल्हार

यूँ फासीवाद मचलता है

करता है जीवन पर प्रहार

इतिहास यूँ रचा जाता है

ज्यों हो हिटलर का अट्टहास

यूँ धर्म चाकरी करता है

पूंजी करती बैभव विलास .