Friday, August 12, 2011

नौजवान इंजीनीयरों से कुछ बातें

एक लेखक विन्सेंट वान गाग ने अपनी जीवनी में लिखा है -" दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है."
मैं तकनिकी क्षेत्र से जुड़ा हुआ हूँ और अपने आसपास के समाज में रहने वाले बहुत से इंजीनीयरों को देखता हूँ . उनकी सामाजिक जिन्दगी देखकर कितनी सही प्रतीत होती है ये बातें खासकर अपने ही भीतर मरने वाली और अस्तित्व के घिसटने वाली बात . आज देश के इतने सारे इंजीनीयरिंग कॉलेजों और इतनी सारी सोफ्ट्वेयेर कंपनियों में पढ़ने वाले और काम करने वाले युवाओं ने कभी अपनी ज़िन्दगी पर गौर करके देखा है ? कभी सोचा है कि कैसी ज़िन्दगी वे जी रहे है? कभी यह जानने कि कोशिश कि है कि जीने के मायने क्या हैं ? क्यों हमेशा वो कुछ परेशान से रहते है ? हमेशा भविष्य कि चिंता सताती रहती है. मैंने हमेशा देखा है कि वे मनोरंजन के नाम पर या टीवी पर दिखाए जाने वाले फूहड़ कार्यक्रमों को देखते हैं या फिर अश्लील मज़ाको का सहारा लेते हैं.प्रगतिशील साहित्य के नाम पर चेतन भगत जैसे लेखकों का साहित्य पढते हैं. समाज से बिलकुल अलग असहाय से. गौर करके देखिये कभी कितनी संकुचित है मानसिकता और ज़िन्दगी . क्या सुबह से शाम तक काम करने और सप्ताहांत में सिनेमा हाल में कोई घटिया मूवी देख लेना ही ज़िन्दगी है ? घटिया मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आजकल मूवी में न तो डंग का मनोरंजन होता है न ही समाज के लिए कोई सन्देश . बस फूहड़ मारधाड़ या फिर गाली गलौज . जो चीज़ हम अपने परिवार में स्वीकार नहीं कर सकते उससे मनोरंजन कैसे प्राप्त कर सकते हैं . और तो आजकल युवा वर्ग सबसे ज्यादा नशाखोरी का शिकार होता जा रहा है और वास्तव में उन्होंने कभो सोचा ही नहीं कि वे ऐसा क्यों करते हैं ? क्योंकि उनके अंतर्मन में कंही आक्रोश दबा होता है समाज की परिस्थितियों के खिलाफ, अपनी ज़िन्दगी के खिलाफ . क्या कभी इस बात पर गौर किया है कि कब तक ऐसी ज़िन्दगी बिताते रहोगे. कभी कोशिश कीजिए संकुचित दायरे से बाहर आकर दुनिया को दिखने की, कि कितनी ख़ूबसूरती मौजूद है यहाँ . कभी इस घटिया मल्टी-नेशनल सोच से अलग हटकर ज़िन्दगी के सही मायनों के बारे में सोचकर देखिये . क्या यह नहीं लगता कि हमने अपनी क्षमता को बहुत कम करके आँका है , क्या हम अपनी पूरी ज़िन्दगी एक सोफ्ट्वेयेर कंपनी तक ही सीमित करने की कल्पना कर सकते हैं?
जीवन स्तर के बारे में चेखव ने लिखा है :-
"यदि जीवन्तता की कोई सशक्त क्षमता है तो उसको छेड़ने पर उसकी प्रतिक्रिया होनी ही चाहिये। नीचता के प्रति क्रोध से और कुटिलता के प्रति घ्रणा से। और वही मेरी राय में जीवन है। प्राणीजगत में जितनें नीचे स्तर का जीवन होगा उतने ही नीचे स्तर की उसकी चेतना होगी और उतनी ही निर्बल उसकी प्रतिक्रिया । प्राणी का स्तर जितना ही ऊँचा होगा उतनी ही अधिक वास्तविकता के प्रति सशक्त और सचेतन उसकी प्रतिक्रिया."
अगर जीवन स्तर कि यह प्रस्तावना आपको सही लगती है तो समाज कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को देखकर आप चुप नहीं बैठ सकते आपको अपनी प्रतिक्रिया देनी ही होगी. प्रतिरोध तो आवश्यक है .
अपनी क्षमता को विस्तृत होने का मौका तो दीजिये .कभी इस झूठी शानो शौकत के कबूतर खाने से बहार निकल कर सोचिये और समाज को समझिये . नए लोगों से मिलिए , नया साहित्य पढिये , नयी नयी कलाएं सीखियें , समाज को बेहतर बनाने के लिए काम कीजिये . लूट , शोषण, गरीबी , भ्रष्टाचार कि खबरें सुनकर चुप मत बैठे रहिये उसे बदलने के लिए आगे आईये और आप देखेंगे कि कैसे आप एक नयी दुनिया में आ गए हैं जन्हाँ उम्मीदें है, आशाएं हैं , बेहतर भविष्य के स्वप्न हैं जो साकार करने हैं ,