Friday, November 2, 2012

महिलाओं कि मानसिक गुलामी का प्रतीक है पर्व करवाचौथ



करवाचौथ का पर्व फिर से आ गया है और मध्यवर्ग की  महिलाओं में अच्छा खासा उत्साह देखने को मिल रहा है . पिछले दो दिनों से ही करवाचौथ की तैयारियाँ  शुरु है, हाथो में कोहनी तक मेहदी पोत ली गयी है . अब चूँकि बीवी शाम तक भूखी रहेगी तो पति को भी कोई महंगा गिफ्ट आइटम खरीदना ही पड़ेगा. चलिए पहले इस पर्व के वास्तविक अर्थों पर बात कर लेते है " जैसे इस दिन महिलाएं अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती है है और शाम को चन्द्रमा के उदय होने के बाद पहले चाँद को देखती है फिर पति को और पूजा अनुष्ठान पूरा करती हैं तब जाके कंही भोजन करती है . पहली बात तो यह की ये बड़ा ही हास्यास्पद  लगता है की आज से बहुत पहले ही इन्सान चाँद पर कदम रख चूका है तो उसको देखकर फिर पति की तुलना चाँद से की जाये और चाँद के सामने पूजा अनुष्ठान किया जाये. और दूसरी बात ये है की महिलाओ  ने ही सारे पूजा अनुष्ठानो की जिम्मेदारी उठा राखी है , कभी पति लम्बी उम्र के लिए और कभी बच्चे की. वस्तुत इन सबसे कुछ होना है नहीं अपितु ये परोक्ष  रूप से ये महिलाओ  की मानसिक गुलामी को दर्शाती हैं . जैसे पुराने समाज में गुलाम भी अपने मालिक को ही सबकुछ समझता था और अपनी गुलामी में ही सुख अनुभव करता था . वही हाल आज की महिलाओ  का है वे पुरुष प्रधान समाज की गुलामी को स्वीकार  कर चुकी है और ये सारे व्रत वगैरह  रखकर बड़े सुख का अनुभव करती हैं. मध्यवर्ग के इस उत्साह के पीछे एक दूसरा पहलु भी है , वो है आज की बाजारवादी मानसिकता .  सच्चाई यह है की पूंजीवादी मीडिया लोगो की छिछली भावनायों का अच्छा इस्तेमाल करती है . आजकल जितने भी इस प्रकार के पर्व है उनका मीडिया द्वारा खूब  प्रचार किया जाता है और नए नए गिफ्ट आइटम्स की बाज़ार में भरमार आ जाती है . और ग्लैमर की चकाचौध  भी इस मानसिकता को बढावा देने में काफी काम आती है जिसके चलते आजकल की फैशनबल  पीड़ी भी इन त्योहारों को अच्छा खासा तवज्जो देने लगा है . वस्तुत यह भी महिलाओ   को मानसिक ग़ुलाम बनाने का ही एक तरीका है जो उन्हें पुराने रुडिवादी संस्कारों  से जोड़े रखता है और उनकी मानसिकता को विकसित नहीं होने देता . इस तरह उपभोक्तावाद की संस्कृत तो बन ही जाती है और महिलाएं भी जाने अनजाने पुरुषों की गुलामी स्वीकार कर ही लेती हैं . महिलाओं को यह समझना होगा कि पति पत्नी का रिश्ता वास्तविक अर्थो में तभी समझा जा सकता है जब पुरुष समाज भी महिलाओं  कि इज्ज़त करना सीख ले . जब तक महिलाओं को उपभोग कि वस्तु समझा जाता रहेगा तब तक इस तरह के पर्व त्यौहार महिलाओं के सामाजिक अवमूल्यन को ही दर्शाएंगे . महिलाओं को अपनी सोच बदलने कि जरुरत है ताकि वे समाज में अपनी स्वतंत्र उपस्थिति दर्ज करवा सके , न कि हमेशा पुरुषो के लिए उपभोग कि वस्तु बनी रहें .