Monday, July 27, 2020

कोरोना वायरस की भयानकता और अवैज्ञानिक अफरा तफरी में फायदा किसका ???

 डिस्क्लेमर : इस आर्टिकल का उद्देश्य बीमारी को लेकर किसी प्रकार की लापरवाई को प्रमोट करना बिलकुल भी नहीं है , साफ़ सफाई , पब्लिक प्लेस पर मास्क और शारीरिक दूरी का पालन करें। साफ़ सुथरी जीवन शैली कई बीमारियों से बचाती है (हालाँकि मज़दूरों  के रहने की परिस्थिति इतनी भयावह है की साफ़ सफाई और शारीरिक दूरी की बात भूल ही जाईये ) . साथ ही डरें बिलकुल नहीं ।  वैज्ञानिक सूझ बूझ  के साथ बीमारी से निबटे।  इस आर्टिकल का उद्देश्य बीमारी को लेकर  किसी भी  प्रकार के षड्यंत्र सिद्दांत की पैरवी करना भी बिकुल नहीं है। आर्टिकल में प्रस्तुत विचार भी पूर्ण तौर पर निजी हैं , जिनका किसी संगठन से कोई लेना देना नहीं है।

किसी बीमारी को लेकर डर फैलाना ज्यादा सूझबूझ का काम है या वैज्ञानिक सोच के साथ सही जानकारी देना एवं कोरोना जैसी बीमारी के समय में में आमजन की ज़िन्दगी आसान बनाना ? मेरी राय में दूसरी बात सही है , लेकिन हमारी पूंजीवाद द्वारा पोषित बड़ी बड़ी स्वास्थ्य संस्थाओं ने पहला काम ज्यादा किया। इन्होने डर फैलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। किसी बीमारी के बारे में डर को २ तरह की मानसिक बीमारियों का नाम दिया गया है 1. Hypochondria , 2. Nasophobia . पहली के केस में व्यक्ति को मामूली लक्षण आते है तो वो किसी बड़ी बीमारी होने का भ्रम पाल लेता है और नाहक ही अवसाद का शिकार हो जाता है , दूसरे केस में बिना लक्षण के भी व्यक्ति बीमार होने के भय में जीता है और उसे हमेशा ये लगता है की उसे अमुक बीमारी न हो जाए। कोरोना के केस में मैं कहूंगा की कम या देर से दी जा रही जानकारियों ने एक बड़ी आबादी को इन दो बीमारियों का शिकार बना दिया है।  और ऐसा लगता है की फेसबुक पर भी कुछ लोग इस डर को बढ़ावा देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं , वे इस डर की आग में घी डालने के लिए दुनिया के किसी कोने में होने वाली छोटी सी रिसर्च को भी शेयर करने से नहीं चूकते , साथ ही कोरोना के ठीक होने के बाद के प्रभाव को भी ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे पता नहीं कितना भयानक है ये।  अमूमन स्वाद और सूघने की शक्ति को ही ले लीजिये , हम सब बचपन से ये जानते हैं की जुकाम होने पर सूघने की शक्ति ख़त्म हो जाती और और स्वाद भी महसूस होना बंद हो जाता है , अगर जुकाम और बुखार ठीक होने में ज्यादा वक़्त लगा दे और आपको हैवी एंटीबायोटिक खानी पढ़ जाए तो कमज़ोरी आना भी लाज़िमी है जिसके जाने में महीना भर लग सकता है , लेकिन कोरोना के केस में यही लक्षण ऐसे भयानक तरीके से पेश किये जा रहे हैं जैसे पता नहीं कौन सी आफत टूट पड़ेगी। हाँ अगर आप Hypochondria या Nasophobia से ग्रसित हैं तो निश्चय ही ऐसा कर सकते हैं।

  हालाँकि पिछले आर्टिकल में मैंने  कोरोना के IFR  को फ्लू के CFR  से तुलना कर दी थी जो की गलत है , तुलना समान मानकों की ही होनी चाहिए।  इसलिए इस जानकारी को दुरुस्त करते हुए आपको बता दूँ की फ्लू का CFR 0.1 फीसदी है जबकि कोरोना का अब तक ज्ञात आकंड़ो के हिसाब 3 -4 फीसदी है जो की फ्लू से कंही जायदा है. हालाँकि ये आंकड़े अभी आखिरी आंकड़े नहीं हैं , भारत में अब तक की जानकारी के हिसाब से CFR 2.3 फीसदी और IFR 0.07 फीसदी  है।
कुछ लोगों ने दिल्ली में हुए सेरोलॉजीकल सर्वे को बड़े ही हास्यास्पद तरीके से NCDC के फ्लू के आकंड़ो के से कम्पेयर कर दिया और अपनी सुविधा के अनुसार आकंड़ो को चुन लिया।  जबकि फ्लू की रिपोर्ट पर गौर किया जाए तो ये यकीन करने लायक तो बिल्कुल भी नहीं लगते , फिर इन आकंड़ो के आधार पर आपको फ्लू का इंडिया में CFR बता देता हूँ :
साल 2016 में 14.72
साल 2017 में 5.84
साल 2018 में 7.39
साल 2019 में 4.22
साल 2020 (23 फरबरी तक ) 1.5

अब इन आकड़ो को देखकर आप समझ ही गए होंगे की यह कितने हास्यास्पद हैं। खैर छोड़िये आंकड़ों की बाज़ीगरियाँ तो चलती रहेंगी और अपनी सुविधा अनुसार सब इनका इस्तेमाल करते रहेंगे और एक दूसरे तो मुर्ख , महामूर्ख , दोगले , चुगद , कोवीडिअट्स , कोविफूफ  , षड्यंत्र सिद्धांतकारी से लेकर पानी उबालने और  दक्षिण पंथियों की चड्डी तक बहस का स्तर ले जाते रहेंगे। इसलिए मेरी तरफ से आकड़ों की बसह को फिलहाल विराम , कुछ महीनो में ही कोरोना को लेकर भी सही तस्वीर सबके सामने होगी।

 खैर अब देखते है बीमारी को लेकर डर फैलाना कितना वाजिब है और इससे पूंजीवादी व्यक्स्था एक्सपोज़ होगी या नहीं।
 आप किसी डॉक्टर के पास जाईये और वो आपको आधे अधूरे फैक्ट्स बता दे और कहे ये तो बहुत गंभीर बीमारी है , लेकिन अफ़सोस इसका कोई इलाज़ नहीं सोचिये क्या हालत होगी ? वंही दूसरी तरफ सही तरीके से वैज्ञानिक तर्क के साथ बीमारी  के बारे में समझाए और संभव इलाज़ के तरीके बताये तब निश्चय ही आप अच्छा महसूस करेंगे। यही बात कोरोना को लेकर भी सत्य है। CDC जैसी  संस्थाओं ने सही जानकारियों को सामने लाने में इतना वक़्त लगा दिया कि ये व्यवस्था लोगों में डर पैदा करने में कामयाब हो गयी।  WHO अभी भी जिस तरह से जानकारियां सामने ला रहा है उससे यह साफ़ है , कि  इन संस्थाओं का आम जन  जीवन सरल सुलभ बनाने से कोई वास्ता नहीं। यही कारण है की इनकी भूमिका संदेहास्पद हो जाती है।

जानकारियों की कमी ही मुख्य वजह थी की मौजूदा फासिस्ट सरकार आनन् फानन में लॉकडाउन करने  में सफल रही और लोगों को यह भरोसा भी दिला दिया की लॉकडाउन की एकमात्र रास्ता है , जबकि इस विषय पर ICMR फरवरी माह में एक पेपर पब्लिश कर चुका था और कह चुका था कि भारत में सम्पूर्ण लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं है । उसके बाद जो हुआ वो  सबके सामने है :
1. मसलन मज़दूरों का पैदल भूखे प्यासे घर की तरफ चल देना , श्रम कानूनों का खात्मा , पूँजीपतिओं को अपनी मनमर्ज़ी करने की छूट और पुलिस को खुलेआम जनता का दमन करने की छूट।
2. डर के माहौल ने कई तरह से  सामजिक माहौल भी ख़राब किया , कई गॉंवो में बहार से आने वाले लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया गया , कई नर्सो और डॉक्टरों के साथ उनके मकान मालिकों ने बुरा बर्ताव किया घर में घुसने  से रोका एक तरह से इंसान को इंसान का दुश्मन बना दिया।
3. डर और सही जानकारी की कमी की वजह से कई जगह  लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया , और मज़दूरों के ऊपर केमिकल तक छिड़क दिए।
4. शुरुआत में उम्रदराज़ लोगों के लिए ऐसा डर का माहौल बनाया गया की अगर उन्हें कोरोना हो गया तो  मौत निश्चित है , जबकि  अब यह साफ़ साफ़ पता चल गया है कि यह सिर्फ स्वास्थ सुविधाओं की बात है , नहीं तो ७७ साल के अमिताभ बच्चन से लेकर बोलसनारो जैसे लोग भी ठीक हो रहे हैं।  लेकिन आमजन के लिए डर के माहौल में स्वास्थ्य सुविधाओं का प्रश्न कंही पीछे छूट  गया।
5. डर का आलम ये था कि पॉजिटिव आने पर कुछ मरीज़ों ने हॉस्पिटल की छत से कूद कर सुसाइड तक कर ली।
6. निजी अस्पताल और डॉक्टर अपने क्लिनिक बंद करके बैठ  गए और सामान्य मरीज़ो को भी इलाज़ मुहैया नहीं हो पाया।  कई गर्भवती महिलाओं और गंभीर मरीज़ों की मौत भी हो गयी।

अगर वैज्ञानिक सूझ बूझ  निर्णय लिए गए होते और लॉकडाउन जैसे जनविरोधी काम न करके छिटपुट लॉकडाउन और कांटेक्ट ट्रेसिंग का काम किया जाता तो स्तिथि काफी अलग होती। हालाँकि विश्व में कई देश ऐसे हैं जिहोने इस महामारी को कण्ट्रोल करने के लिए काफी सूझ बूझ से काम लिया , लेकिन उनकी स्टडी और कार्यप्रणाली आपके सामने नहीं लायी जायेगी। 

आप कह सकते है की कोरोना के नाम पर पूंजीवादी स्वास्थ्य सेवाओं को पर्दाफाश हो जाएगा और हमे इसका फायदा उठाना चाहिए , यह सच है की पूँजीवाद को एक्सपोज़ करने का कोई मौका हमे नहीं छोड़ना चाहिए , लेकिन यंहा मामला उल्टा जान पड़ता है।  जिस तरह से वायरस की भयावहता को प्रचारित किया गया उससे फासिस्ट सरकारें जनता को यह यकीन दिलवाने में कामयाब हो गयी की ये इतना भयानक वायरस है की हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इसमें कुछ नहीं कर सकती और लॉकडाउन ही एकमात्र रास्ता है , आपको याद होगा दूसरे लॉकडाउन के अनाउंसमेंट के वक़्त बड़ी चालाकी से प्रधानमन्त्री यह बोल देता है कि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं विकसित देशों के मुक़ाबले बहुत पीछे है और लॉकडाउन ही एकमात्र रास्ता है।  अपने  इस बयान से प्रधानमंत्री आम जनता को यह यकीन दिलवाने में कामयाब हो गए कि स्वास्थ्य सेवाएं इस वायरस के लिए कुछ नहीं कर  सकती और पूरे देश को सिर्फ 500 केस होने पर लॉकडाउन में झोंक दिया , और बाद में लोग यह कहते हुए भी देखे गए कि मोदी जी ने उन्हें बचा लिया वार्ना तो मौत निश्चित थी। इस तरह देखा जाए तो प्रधानमन्त्री खुद ही अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को एक्सपोज़ करके चले गए अब आप उन्हें क्या एक्सपोज़ करेंगे , बल्कि उलटे अतिरेक डर में लोगों को इसमें कुछ गलत भी नहीं लगा। 

अब देखते हैं कि बीमारी को लेकर फैलाया गया डर पूंजीपतियों के लिए फायदे का सौदा रहा या घाटे का ??इसके लिए थोड़ा पीछे चलते है , साल 2019 में ही हम सबको पता था की अर्थव्यवस्था संकट के दौर में है , बेरोज़गारी बढ़ रही है , ऑटोमोबाइल और टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज मंदी की चपेट में आ चुके है  और आने वाले समय में यह संकट और गहरा होता जा  रहा था , CAA और NRC को लेकर विरोध प्रदर्शन अपने चरम पर थे और इसमें शामिल लोगों का गुस्सा व्यवस्था के प्रति साफ़ दिख रहा था। और इन सबके बीच आगमन होता है कोरोना का और भारत सरकार बढ़ी चालाकी से पहले एक दिन का लॉकडाउन करती है और लोगों से ताली थाली बजाने को कहती है और आपको याद होगा सारे पूंजीपति एक स्वर में इसका समर्थन करते दिखे और सबने बढे उत्साह से थाली बजायी।  इस घनघोर समर्थन के बाद जब कोरोना के केस महज 500 थे आपके सामने Covid-19 को बहुत ही भयावह तरीके से पेश किया गया और 21 दिन का लॉकडाउन कर दिया गया।  आपको याद होगा इज़ारेदार पूंजीपतियों ने इस कदम का भी खुली बाहों से समर्थन किया , कोरोना के नाम पर विश्वभर में समर्थन पा चुके शाहीन बाग़ प्रोटेस्ट को चुपके से उखाड़ दिया गया। इसके साथ ही पीएम केयर फण्ड का आगमन होता है और पूंजीपतियों से लेकर फिल्म स्टारों तक इसमें दान करने ही होड़ लग जाती है।
 यह सच है की उत्पादन कम हुआ है लेकिन देखा जाए तो इस पूरी महामारी में इज़ारेदार पूँजीपतियों की स्तिथि क्या रही ?
 छोटे उद्योगों को तबाह कर इस पूंजीवादी व्यवस्था की मोनोपोली की तरफ एक लम्बी छलांग नहीं है क्या ? अमेरिकन पूंजीपतियों ने खुले मन से भारत की तरफ पूँजी न निर्यात करना शुरू कर दिया , और इसी क्रम में मुकेश अम्बानी जैसे लोग अमीरों की सूचि में 5वे नंबर पर पहुंच गए।  अमेरिका में भी अमेज़न जैसी कंपनियों के मालिकों ने जमकर पैसा कमाया।  जब पीएम 20 लाख करोड़ के पैकेज का अनाउंसमेंट करते हैं तो महिंद्रा जैसे पूंजीपति समर्थन में ताली बजाते हुए कहते है की यह तो 1991 में हुए सुधारों जैसा है, मुझे रात भर नींद नहीं आयी ऐसे सुधार सुनकर।  तो अगर देखा जाए भारत में पूंजीपति वर्ग पूर्ण रूप से लॉकडाउन के समर्थन में ही था।  अगर आप कहेंगे नहीं ऐसा नहीं था तो क्या मैं ये मान लूँ की भारत की सरकार इतनी निरंकुश हो गयी है जो अपने मालिकों की बात भी न माने ?
इसके साथ ही करोड़ों मज़दूर जो गांव बापस लौट गए थे वो धिरे धिरे अब बापस शहरों की तरफ लौटने लगे है , लेकिन अब परिस्थियाँ काफी बदल चुकी है और इस संकट में मज़दूर अपने श्रम की क्रय शक्ति खो चुका है और अब वो पूंजीपति को आने पौने दामों में श्रमशक्ति बेचने को मज़बूर होगा  और पूंजीपति की शर्तों पर काम करने को भी मज़बूर होगा। 
और लॉकडाउन के समय में भी मज़दूरों की छटनी बदस्तूर ज़ारी थी , लेकिन गुडगाँव में काम करने वाले एक कार्यकर्ता बताते हैं की लगभग 70 फीसदी मज़दूर गांव चला गया है तो ऐसी स्तिथि में कोई आंदोलन भी खड़ा नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में साफ़ पता चलता है की इसके दूरगामी परिणाम किसके पक्ष में जाएँगे। और सरकारें अपनी नाकामी का सारा ठीकरा कोरोना के सर पर फोड़ देंगे और खुद को साफ़ बचा लेंगी.

अब एक और बात , कोरोना पर पूंजीवादी एजेंसियों पर सवाल उठाने वालों को एक ही झटके में दक्षिणपंथियों के साथ खड़ा कर दिया जाता है , कुतर्कों और बेहूदा बातों की रेलमपेल करनी  शुरू कर दी जाती है और ज़बरदस्ती अपने शब्द आपके मुँह में ठूसने की कोशिश करने लगते है. तो पहले समझ लेते हैं कि दक्षिणपंथियों का स्टैंड क्या है , शुरूआती दौर में ट्रम्प ने WHO और चीन पर खूब इलज़ाम लगाए और एक चीन विरोधी माहौल बनाया और इंडिया के दक्षिणपंथियों ने भी वही फॉलो किया , लेकिन गौर करने वाली बात यह है की इंडिया के दक्षिणपंथियों ने लॉकडाउन का विरोध कभी नहीं किया उलट उन्होंने सरकार की बात पूरी निष्ठां से मानी और डर के माहौल का भी प्रचार किया।  साथ ही दक्षिणपंथी आज भी यही राग अलाप रहे हैं की ये चीन की साज़िश है , चीन पूरी दुनिया को परेशानी में डॉल  अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है और WHO इसमें उसकी मदद कर रहा है।  लेकिन अगर सही नज़रिये से देखा जाए तो क्या ऐसा वास्तव में हो रहा है , बिलकुल नहीं , इसके उलट इस पूरे माहौल का फायदा दुनिया के दक्षिणपंथी और उनके समर्थक इज़ारेदार पूंजीपति ही उठा रहे हैं , अमेरिका पूरी दुनिया में चीन विरोधी माहौल बनाने में सफल रहा और चीनी कम्पनियों के खिलाफ लामबंदी को बखूबी अंजाम दिया , भारत चीन सीमा विवाद को इतने दिनों से नाहक ही बढ़ावा दिया जा रहा है और स्थिति सामान्य होने देने की वजाय अमेरिका उसमे आग में घी डालने का काम कर रहा है और भारत की फासीवादी सरकार उसका पूरा सहयोग कर रही है।  अब एक तो चीन विवाद और साथ में कोरोना जैसी महामारी , अकेले मोदी करें तो क्या , किस किस से निबटे ? बस इतना माहौल काफी है जनता के बीच अपनी मज़बूरी साबित करने के लिए।  बाकी पूरा मीडिया है ही प्रचार के लिए जो जल्द ही जनता को यकीन दिला देगा की सरकार ने अपनी पूरी कोशिश की बीमारी से निबटने की लेकिन बीमारी है ही इतनी भयानक की कुछ किया नहीं जा सकता। यही काम फेसबुक पर आजकल कुछ लोग जोर शोर से करने में लगे हुए हैं।  साथ ही कोरोना की आड़ में किये जन  विरोधी कामों को भी अगर षड़यंत्र सिद्धांत कहा जाए तो भी आजकल कुछ लोगों को ऐसी मिर्ची लग जाती है जैसे ये फासिस्ट सरकारें और पूंजीपति उनके अपने सगे हों , जैसे इन्होने कभी षड्यंत्र सिद्धांतों पर यकीन ही नहीं किया , ऐसा माना  जाये तो फिर तो नाहक ही ये लोग CIA जैसी संस्थाओं पर षड़यंत्र करने का आरोप लगाते रहे , या अब इन्होने अपना स्टैंड बदल लिया है ????
जबकि कई देशो ने कोरोना के लिए काफी सही रणनीति अपनायी और बहुतायत आबादी को परेशानी में डाले बिना बीमारी पर कण्ट्रोल भी कर लिया , और ये भी सच है की इन देशो में मृत्यु दर भी काफी कम देखने को मिली  है। 
लिखने को अभी CAA/NRC और जन आन्दोलनों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है और उनका क्या हाल हुआ या किया गया कोरोना की आड़ में।  बाकी जैसा मैंने कहा बीमारी को लेकर अगले कुछ ही महीनों में सारे आकंड़े साफ़ हो जाएंगे , उसी तरह इस पूरी महामारी का फायदा किसने उठाया यह भी जल्द ही साफ़ हो जाएगा। तब जो स्थिति होगी उसे खुले मन से स्वीकार किया जाएगा  तब तक इन छीछालेदर वाली बहसों से अवकाश। बीमारियों से बचाव अति आवश्यक है और ऐसे दौर में जब  पूंजीवादी चिकित्सा व्यवस्था को आपके स्वास्थ्य से ज्यादा अपने मुनाफे की चिंता हो।
 




Friday, July 24, 2020

Science in the Service of Capital

Science in the Service of Capital
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In the capitalistic society science becomes 'a productive force distinct from labour and pressed into the service of capital' (C , 1.361). In the era of monopoly capitalism scientific research is more highly organised than ever before , but always with the overriding aim of private profit and devoted increasingly to war. The training of natural scientist is so departmentalized as to make it difficult for them to acquire a theoretical grasp of natural science as a whole, and they receive no training at all in the study of human society. Conversely, social and historical studies are so organised as to exclude the natural sciences. Economics is separated from history and both from politics. History is taught as a thought it were not a branch of science at all. In the natural sciences , the student may know nothing about the Marxism, yet at least he recognizes dialectical processes in nature, even though he does not not know them by name; but the laws of dialectics mean nothing to the bourgeois historian, who does not even recognize the class struggle.

This contradiction in the bourgeois educational system between the study of nature and the study of man reflects the conflict in the bourgeois consciousness between the need to develop science as a productive force and the need to conceal the true relationship between capital and labour.

Some bourgeois scientists seek to defend their situation by maintaining that their concerns is with the advancement of knowledge for its own sake and not with the social consequences of their work; but, as the social issues become more pressing , it becomes difficult for them to persist in this attitude without loss of self respect. Meanwhile, others of them are brought through their industrial ties into contact with workers and so drawn into the class struggle. In this way they learn that only through the socialist revolution can science be reunited with labour as a force devoted to the production of use-values in the service of people.

~~ The Human Essence (George Thomson)

Wednesday, July 22, 2020

दिल्ली का कोरोना सेरिओलॉज़ी सर्वे : कोरोना के आंकड़ों को देखने का नज़रिया और जादूगरी

 दिल्ली में कराये गए कोरोना के सेरिओलॉज़ी सर्वे के रिजल्ट कल ही आये है , और इस रिपोर्ट का लब्बोलुवाब यह है की 10 जुलाई  तक के 21387 रैंडम लोगों का सैंपल लिए गए (रैंडम मतलब वो लोग जो जिनका कभी कोरोना टेस्ट नहीं हुआ , जिनका कोई इलाज़ नहीं हुआ जो पूरी तरह से स्वस्थ हैं ) . इस सर्वे की रिपोर्ट में पाया गया की 23.48  फीसदी लोग में कोरोना की एंटीबाडी है मतलब इनको कोरोना हुआ और अपने आप ठीक हो गया।  इस आधार पर देखा जाए तो दिल्ली की 2 करोड़ की जनसँख्या में से लगभग 4600000 लोग 10 जुलाई कोरोना से संक्रमित हुए और ठीक हो गए.
अब इस रिपोर्ट को देखने के 2 नज़रिये हो सकते हैं :
1. 10  जुलाई  तक  46 लाख लोग संक्रमित हुए और 10 जुलाई तक दिल्ली में रिपोर्टेड मौतें थी 3300   . इस आकंड़े के हिसाब से संक्रमित मृत्यु दर(IFR ) हुयी  0.07  फीसदी , नार्मल फ्लू की मृत्यु दर 0.1 फीसदी से बहुत कम।  कुछ लोग कहेंगे मृत्यु के आकंड़े कम रिपोर्ट किये गए तो उनके लिए मैं थोड़ा आकंड़ा बढ़ा देता हूँ , 10 जुलाई  तक मौत का आंकड़ा 5000 मान लेते है और अब इस आकड़े के साथ संक्रमित मृत्यु दर(IFR ) हो जाती है 0.1 फीसदी मतलब नार्मल फ्लू की मृत्यु दर के बिल्कुल बराबर । अब आप बताइए नार्मल फ्लू के लिए कभी इतना डराया गया , लॉकडाउन किया गया ? सारा  धंधा पानी बन्द किया गया? नहीं न तो फिर कोरोना का बहाना बना कर ये सब क्यूँ किया गया?

2. अब दूसरे नज़रिए से देखते हैं , दिल्ली में 46 लाख लोग कोरोना संक्रमित हो गए इन्होंने पता नहीं कितने और लोगों को कर दिया होगा अब क्या होगा ? अगर 5 फीसदी लोगों को भी वेंटीलेटर की जरूरत पड़ जाती तो? क्या 2 लाख 30 हज़ार लोगों को वेंटीलेटर मिल पाते ? हाय तौबा ! सब बन्द कर दो , घरों में दुबक जाओ पुलिस का सम्मान करो ताली बजाओ , थाली बजाओ। सरकारे आला की बात मानों। लेकिन हो जाता और होने में बहुत फर्क है। होने को तो दिल्ली में लॉकडाउन के टाइम पे 4 बार भूकंप आया जिसकी तीव्रता 3 से 4 थी अगर ये बढ़कर 8 से 9 हो जाती तो ?? सब के सब अपने घरों में ही दबकर मर जाते , फिर क्या करें चलें सब घर बार छोड़ के जंगलों में खुले आसमान के नीचे रहें चलके ? फिर आप कहेंगे नहीं ऐसा कैसे कर सकते हैं , भूकंप आया तो हल्का ही । तो मेरे भाई 2 लाख 30 हज़ार लोगों को भी वेंटीलेटर की जरूरत पड़ी तो नही न सब खुद ही ठीक हो गए फिर इतनी हाय तौबा क्यूँ?

ज्यादातर लोग रिपोर्ट को दूसरे वाले नज़रिये से ही देखेंगे क्यूंकि प्रचार के ज़रिये आपके दिमाग में  पहले से ही डर बैठा दिया गया है और आपके दिमाग पहले से ऐसे न्यूरल नेटवर्क बना दिए गए हैं जो इन आंकड़ों को देख के डरने वाला नज़रिया ही अख्तियार करेंगे. फिर भी मैं कहूंगा मेडिकल साइंस को लेकर बहुत सारा डाटा इंटरनेट पर उपलब्ध है उसे पढ़िए समझिये और फिर किसी की बात मानिये , नहीं तो उसी डाटा को तोड़ मरोड़ कर आपके  सामने अर्थ का अनर्थ कर दिया जाएगा  . 

Tuesday, July 21, 2020

कोरोना का डर , आंकड़ों की बाजीगरी और वैक्सीन

सबसे पहले बात करते है कोरोना वायरस की , तो ये जगज़ाहिर है की SARS फैमिली का ये एक नए तरह का वायरस है , जिसका ज्ञात स्रोत  चीन का वुहान है और कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी जुकाम जैसी ही है , जिसमे व्यक्ति को श्वांस सम्बंधित बीमारी होने का खतरा है। इस वायरस  से संक्रमित 80  प्रतिशत लोगों
 को कोई बीमारी नहीं होती या नार्मल जुकाम जैसे लक्षण आते है और अपने आप ठीक हो जाते है , 15 प्रतिशत लोगों को गंभीर जुकाम हो सकता है और ऑक्सीजन सपोर्ट की जरुरत पढ़ सकती है , वंही 5 प्रतिशत लोगों को वेंटीलेटर की जरुरत पढ़ सकती  है[1]। हालाँकि जैसे जैसे टेस्ट बढ़ते जाएंगे ये आंकड़े कम  होते जाएंगे , उदहारण के लिए आपको बता दूँ अप्रैल के शुरुआत में worldometers.info  वेबसाइट पर closed cases  में मृत्यु दर 20 प्रतिशत थी , आज ज्यादा आकंड़े उपलब्ध होने पर वह 6 प्रतिशत रह गयी है 4 महीने से भी कम  समय में 14 प्रतिशत कम , मतलब साल के अंत तक यह 1  प्रतिशत पहुंच जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
अब  तथ्य को थोड़ा गहराई से समझ लेते है , मृत्यु दर मांपने के 2 पैमाने है CFR (case fatality rate ) और IFR ( Infection fatality rate ) . CFR अब रिपोर्टेड केसेस के आधार पर मृत्यु दर का आंकलन करता है , वंही IFR रिपोर्टेड के साथ साथ बिना लक्षणों वाले और बिना इलाज़ ठीक होने वाले लोगों का भी अनुमानित आंकड़ा भी गणना में शामिल करता है [2 ]  . इस हिसाब से देखा जाए तो अंतिम मृत्यु दर IFR वाली ही सही मानी जाती है। मार्च में डॉक्टर एन्थोनी  फौसी ने अनुमानित मृत्यु दर 2 प्रतिशत बताई थी [3] , जो अब CDC  ने 29 जून के ताज़ा आंकड़ों के हिसाब से कम करके 0. 68 प्रतिशत कर  दी है [4] . नार्मल जुकाम की मृत्यु दर 0.1  प्रतिशत है , और यह तय है की आने वाले टाइम में कोरोना की मृत्यु दर भी घटेगी ही बढ़ेगी नहीं ( देखें निचे दिया गया CNN का  श्रोत[5 ] : कोरोना का नया म्युटेशन लोगों को कम  बीमार करता है ). NCDC द्वारा दिल्ली में कराये गए सेरिओलॉजी टेस्ट के रिजल्ट आज ही  आएं है और इस रैंडम सर्वे के रिजल्ट बताते है कि दिल्ली में अब तक 23 फीसदी लोग कोरोना संक्रमित हो चुके है , तो इस सर्वे की माने तो अब तक 46 लाख लोग दिल्ली में कोरोना संक्रमित हो चुके हैं [6] और मौतें कितनी हुई 3690 , चलिए 4000 मान लेते हैं।  अब मृत्यु दर निकालिये , 0.087 फीसदी (इसी को IFR कहते हैं ) , और यह आंकड़ा नार्मल फ्लू (0.1 फीसदी मृत्यु दर ) से बहुत कम है।

आज के समय की सबसे बढ़ी ताक़त है ढेर सारा डाटा और सबसे बढ़ी समस्या भी वही है , दुनियाभर में बैठी फासिस्ट सरकारें ये निर्धारित करती हैं की आपको क्या दिखाना है क्या नहीं चलिए अब आपको कुछ पुराने डाटा से रूबरू करवाते हैं  :
1. 2018 में भारत में कैंसर से 7,84,821 लोगों की मौत हुई थी और दुनियाभर में 9600000 लोगों की। [7]
2. अक्टूबर 2019 से अप्रैल 2020 तक अमेरिका में 62000 लोगों की मौत सीजनल फ्लू से हुई है। [8]
3. लगभग ३ लाख बच्चे भारत में हर साल डाईरिया से मर जाते हैं.[9]
4.  लगभग 1 लाख 27 हज़ार बच्चे हर साल न्यूमोनिया से मर जाते है।[10]

ऐसे और भी बहुत से आंकड़े आपको इंटरनेट पर मिल जाएंगे , और ऊपर दी गयी सारी बीमारियों का इलाज संभव है , दवाइयाँ उपलब्ध है फिर भी इतनी मौतें हो रही हैं। अब इन आंकड़ों को कोरोना के साथ रखकर देखिये , कोरोना से दुनियाभर में पिछले 7  महीनों में  6,14,771 मौतें हुई है और इंडिया में 28,330 मौते। इस हिसाब से देखा जाए तो अगले 5 महीनों में 4 से 5 लाख मौतें और हो सकती है , फिर भी कैंसर से होने वाली मौतों के इर्द गिर्द भी नहीं पहुँचता है ये आंकड़ा  . तो आप बताईये आप किस बीमारी के लिए ज्यादा सतर्क होंगे , जिससे मौत होने का खतरा ज्यादा है या जो फैलती ज्यादा है ?? आप बताईये दुनियाभर की सरकारों ने कैंसर के रोकथाम के लिए किस स्तर पर तैयारियाँ की ? सिगरेट , तम्बाखू खुलेआम बिक रहा है , जंक फ़ूड खुलेआम बिक रहा है , पब्लिक प्लेसेस पर लोग खुलेआम सिगरेट का धुआँ उड़ाते देखे जा सकते है।  गरीब मज़दूर बस्तियों की हालत सुधारने के लिए कौन सी सरकारों ने काम किया ?? डाईरिया गन्दगी की वजह से ही फैलता है ? कभी सुना न्यूज़ चैनल्स को मज़दूर बस्तियों में  साफ़ सफाई के लिए हाय तौबा मचाते ?? नहीं सुना होगा , फिर कोरोना में ऐसा क्या है ?? सब कुछ लॉकडाउन कर  दिया , करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए ,  करोड़ों की नौकरी जाने वाली है , किसी की तनख्वाह कम हो  गयी। छोटे बिज़नेस तबाह हो गए और अम्बानी दुनिया में अमीरों के पायदान में छठे नंबर पर पहुंच गए।  श्रम कानूनों को समाप्त कर दिया गया , राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर मरने के लिए जेल में डाल दिया गया और जनता के सारे अधिकार छीन लिए गए।  न कोई विरोध  ,  न सत्ता के खिलाफ कोई आवाज़ कोरोना के आंकड़ों की हाय  तौबा में डर डर के जिओ।  सारा देश पुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया गया है , बिना आपातकाल लगाए हम सब आपातकाल में जी रहे है।  शाम होते ही पुलिस डंडे लेकर दुकाने बंद करवाने आ जाती है , किसी को भी रोककर मास्क और सैनिटाइज़र   नाम  पर धमका देती है , फाइन वसूल लेती है।

ये सब आंकड़ों की बाज़ीगरी ही है की जिस बीमारी की मृत्यु दर  मात्र 0.65 प्रतिशत ही उससे हम इतना डरे बैठे हैं , और कुछ लोग डरे ही नहीं बैठे बल्कि डर फैलाने का काम भी कर रहे हैं।  यह सच है की कोरोना एक नया वायरस है , जो कुछ लोगों में गंभीर बीमारी पैदा करता है और इससे बचाव जरुरी है।  देखा जाए तो बचाव तो  सभी बीमारियों से जरुरी है , लेकिन इस तरह से डर के नहीं , करोड़ों लोगों को बेरोज़गार कर के नहीं , डूबती हुई अर्थव्यवस्था में लॉकडाउन करके सारी ज़िम्मेदारी कोरोना पे थोप के नहीं।

चलिए ये तो बात हुई कोरोना और आंकड़ों की बाज़ीगरी की , अब बात करते है वैक्सीन की।  अव्वल तो यह की WHO बार बार यह कहता रहा है की कोरोना की वैक्सीन बना पाना शायद संभव न हो और हमें इसके साथ ही जीना पढ़े , फिर भी कल ऑक्सफ़ोर्ड वालों ने वैक्सीन की सफलता के दावे कर  ही डाले।  तो  इस बारें में आप को बता दूँ की वैक्सीन के ज़रिये हमारे शरीर में वायरस के प्रति एक एंटीबाडी डेवेलप किया जाता है जो वायरस के इन्फेक्शन को फैलने से रोक देता है और हम बीमार नहीं होते , इसी तरह कोई भी व्यक्ति जो वायरस से इन्फेक्ट होकर ठीक हो जाता है उसका शरीर भी वो एंटीबाडी डेवेलप कर लेता है , जैसा कि आपने देखा होगा ऐसे व्यक्ति प्लाज्मा डोनेट करके दूसरों की जान बचा रहे हैं।  लेकिन यह खुद से डेवेलप हुई एंटीबाडी भी एक व्यक्ति के शरीर में 3 महीनों तक ही रहती है।  3 महीनो बाद वो व्यक्ति कोरोना की वजह से दोबारा बीमार पढ़ सकता है।  ऐसी स्थिति में वैक्सीन कैसे काम करेगी ये अभी तय नहीं हुआ है। साथ ही यह भी बताया जा रहा है की वायरस म्यूटेट कर रहा है , फिर नए म्युटेशन पर वैक्सीन काम करेगी या नहीं ?? यंहा यह भी बताता चलूँ की HIV की वैक्सीन आज तक नहीं बनी है जबकि पूरे 36 साल हो गए इस वायरस का  पता चले।  और इसे छोड़िये SARS फैमिली का ही वायरस जो  स्वाइन फ्लू बीमारी पैदा करता था उसकी भी कोई वैक्सीन नहीं बनी जबकि १२ साल हो गए .


लेकिन कोरोना की वैक्सीन आ जायेगी आनन् फानन में , सिर्फ 6 महीने में वैक्सीन तैयार।  क्या आप जानते है फ्लू की भी वैक्सीन होती है , हर साल लगवानी पड़ती है क्यूंकि उससे बनने वाली एंटीबाडी १ साल में ख़त्म हो जाती है।  सोचिये कोरोना की वैक्सीन भी ऐसी ही हुई और आपको हर 3 या 6 महीने में लगवानी पड़ीं  तो ?? तो फार्मा कंपनियों की बल्ले बल्ले ,  इंडिया में तो इसके प्रोडक्शन की कोशिशें भी शुरू हो गयी हैं।  आपको पहले ही इतना डरा दिया गया है की आप आखें बंद करके वैक्सीन खरींदेंगे।  याद ही होगा पहली वैक्सीन रेमडिसीवीआर  ह्यूमन ट्रायल में फेल हो गयी थी , उसके बाद क्या हुआ ?? कंपनी बोली वैक्सीन नहीं  बनी लेकिन ये कोरोना के इलाज़ में कारगर है और आज मार्किट में इसकी तय कीमत 4 से 5 हज़ार रुपये है और 40 से 50 हज़ार रुपये में बेचीं गयी है[11].
देश की स्वघोषित मालकिन नीता अम्बानी अपनी कंपनी के AGM में बोल ही चुकी है की देश के हर नागरिक तक वैक्सीन पहुंचे ये सुनिश्चित करेगी।  हो सकता है आपको कभी पता ही न चले  कि वैक्सीन के नाम पे आपको क्या दिया जा रहा और किस बात के पैसे वसूले जा रहे है ? 
यह जरुरी नहीं की बहुसंख्यक जिस बात को कह रहे हो या सारा मीडिया एक सुर में जिसका प्रचार करने में लग जाए वो सच ही हो।  आपके सामने डाटा का अम्बार लगा हुआ है और सरकारों को जो पसंद है वो इनफार्मेशन उसमे से निकाल कर आपके सामने परोस दी जाती है , तथ्यों को ध्यान से देखिये और समझिये सारी  सच्चाई आपको खुद पता चल जायेगी। 


References :: 
1. https://www.who.int/emergencies/diseases/novel-coronavirus-2019/question-and-answers-hub/q-a-detail/q-a-similarities-and-differences-covid-19-and-influenza?gclid=CjwKCAjwgdX4BRB_EiwAg8O8Hb_up4diLv1WQUSc4og6EKC6-Bds_v0tDwezMoFrDjRlY4Up_tjA1RoCrK0QAvD_BwE.
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Case_fatality_rate
3. https://www.nejm.org/doi/full/10.1056/NEJMe2002387
4. https://www.cdc.gov/coronavirus/2019-ncov/hcp/planning-scenarios.html 
    https://www.medrxiv.org/content/10.1101/2020.05.03.20089854v4
    https://in.dental-tribune.com/news/new-estimate-by-the-cdc-brings-down-the-covid-19-death-rate-to-just-0-26-as-against-whos-3-4/
5. https://edition.cnn.com/2020/07/02/health/coronavirus-mutation-spread-study/index.html
6. https://khabar.ndtv.com/news/india/coronavirus-pandemic-niti-aayod-member-vk-paul-explains-outcome-of-sero-survey-for-people-of-delhi-2266537
7. http://cancerindia.org.in/cancer-statistics/
8. https://www.cdc.gov/flu/about/burden/preliminary-in-season-estimates.htm