Saturday, October 13, 2012

युवाओ को समझना होगा समाज के प्रति दायित्व

आज के इस ऩिराशा पूर्ण अंधकारमय समय में अक्सर युवाओ को यह कहते सुना जा सकता है की उन्हें समाज से क्या मतलब, समाज ऐसे ही चलता रहा है और चलता रहेगा हमें अपना कैरिअर बनाना है और यह विचार भी युवाओ में ऐसे नहीं पल गए वस्तुत आज की उपभोक्तावादी , बाजारवादी शक्तियां मीडिया  साहित्य और फिल्म जगत का बखूवी इस्तेमाल लोगों को व्यतिवादी बनाने में कर रही हैं . सोचने वाली बात तो यह है की मनुष्य प्राणी जगत में सबसे श्रेष्ठ इसीलिए माना  गया है क्योंकि वह समाज में रहता है और एक दुसरे की जरूरतों को पूर्ण करता है किन्तु अगर हम समाज से ही  अलग हो जायेंगे तो हम मनुष्यता की पहली शर्त को ही नकार देते है . दूसरी बात यह है की आप चाहे जितना भी समाज को नकारने की कोशिश करें किन्तु आपके जीवन का हर एक पल समाज एवं राजनीति से ही निर्धारित होता है . 
आज के समय में जब हम ऐसे मोड़ पर खड़े है जन्हा ८०% जनता भुखमरी की कगार पर खड़ी है , पड़ा लिखा युवा वर्ग बेरोजगारी का शिकार है . जन्हा आये दिन  हजारों बच्चे कुपोषण  की वजह से मर जाते है , जन्हा महगाई की हालत ये है की आम आदमी का जीना मुस्किल हो गया है , महिलाएं जन्हा वेश्यावृति के लिए मजबूर हो और आये बलात्कार जैसी घटनाये आम बात हो गयी हो उस समय ऐसा कैसे संभव है की आप व्यक्तिवादी होने की बात करें. व्यक्तिगत कुछ भी नहीं होता सारी आवश्यकताएं समाज के द्वारा ही पूरी होती हैं और इसीलिए हर व्यक्ति की पहली ज़िम्मेदारी समाज के प्रति ही होती है . और जब समाज ऐसे ज्वलंत मोड़ पर खड़ा हो तब युवाओ की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वे आगे आयें और सही क्रांतिकारी योजना को समझकर जनता तक अपनी बात ले जाये . उन्हें यह सन्देश हर एक व्यक्ति तक ले जाना होगा की समाज की इस हालत की ज़िम्मेदार यह पूंजीवादी व्यवथा है और इसको नष्ट किये वगैर कोई वेहतर समाज संभव नहीं है. 
इसलिए वह युवा जो मानता है की मनुष्य का अस्तित्व समाज के बिना संभव नहीं है उसे यह कार्यभार अपने कंधो पर लेना ही होगा . नहीं तो व्यक्तिवादी अराजनैतिक मनुष्यों के लिए जर्मनी के लेखक बेर्तोख्त ब्रेख्त ने कहा ही है ---
"
सबसे जाहिल व्यक्ति वह है जो राजनीतिक रूप से जाहिल है। वह कुछ सुनता नहीं, कुछ देखता नहीं, राजनीतिक जीवन में कोई भाग नहीं लेता। लगता है उसे पता नहीं कि जीने का खर्च, सब्ज़ि‍यों की, आटे की, दवाओं की क़ीमत, किराया-भाड़ा, सब कुछ राजनीतिक फ़ैसलों पर निर्भर करता है। वह तो अपने राजनीतिक अज्ञान पर गर्व भी करता है, और सीना फुलाकर कहता है कि वह राजनीति से नफ़रत करता है। उस मूर्ख को पता नहीं कि राजनीति में उसकी ग़ैर-भागीदारी का ही नतीजा हैं, वेश्याएँ, परित्यक्त बच्चे़, लुटेरे और इस सबसे बदतर, भ्रष्ट अफ़सर तथा शोषक बहुराष्ट्रींय कंपनियों के चाकर।"
हाँ जन्हा तक  निराशा की बात है तो यह सच है की आजादी के साठ साल पुरे हो जाने के बाद भी अभी तक कुछ नहीं बदला और न ही समाज में बड़े स्तर पर ऐसी कोई क्रांतिकारी ताक़त मौजूद है जो इसे बदल सके लेकिन इससे यह हो साबित नहीं हो जाता की ऐसा संभव ही नहीं है . और इस बात का गवाह इतिहास है की बहुत निराशापूर्ण समय के बाद ही क्रान्तिया संभव भी हुई हैं  इसलिए बेहतर यह है की निराश होने की वजाय लोग अपनी ताक़त को पहचाने और इस व्यबस्था को बदलने के लिए आगे आयें
.

Tuesday, October 9, 2012

A poem on fasism

भूतो के झुण्ड गुजरते हैं

कुत्तों - भैंसों पर हो सवार

जीवन जलता है कन्डो- सा

है गगन उगलता अन्धकार


यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का

उन्माद जगाया जाता है

नरमेघ यज्ञ में लाशों का

यूँ डेर लगाया जाता है

यूँ संसद में आता बसंत

यूँ सत्ता गाती है मल्हार

यूँ फासीवाद मचलता है

करता है जीवन पर प्रहार

इतिहास यूँ रचा जाता है

ज्यों हो हिटलर का अट्टहास

यूँ धर्म चाकरी करता है

पूंजी करती बैभव विलास .