Tuesday, December 5, 2023

अल्फा मेल और एनिमल

 
वैसे  हमारे समाज में न जाने कितने बाप , भाई , बॉयफ्रेंड , पति अल्फा मेल एनिमल बने घूम रहे हैं , याद रखिये ये एनिमल प्यार करना जानते ही नहीं , इनका प्यार बस अधिकार जताने का तरीका है।  ये वही अल्फा मेल हैं जो बेटी या बहन के अपनी मर्ज़ी शादी करने पर काट के फेंक देते हैं ,  ये वही पति और ससुर है जो दहेज़ न मिलने पर बहु को जलाकर मार देते हैं , ये वही बॉयफ्रेंड हैं जो गर्लफ्रेंड  की न बर्दास्त नहीं कर पाते और उन्हें चाकुओं से गोद कर मार डालते हैं।  कई माएं , सासें और लड़कियां  अल्फा मेल को स्वीकृति देती मिल जाएगी लेकिन याद रखिये इनका प्यार इतना छिछला और दिखावे भरा है की ज़रा सा अधिकार कम होते दिखा की ये अपने हिंसक रूप में सामने आ जाते हैं।  दरअसल  अल्फा मेल का कांसेप्ट है ही उस बर्बर समाज का जब सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। और अभी भी हमारे समाज में संदीप रेड्डी वांगा जैसे जानवर उस बर्बरता को स्वीकृति दिलाने में लगे हुए हैं कभी कबीर सिंह के रूप में तो कभी रणविजय सिंह के रूप में।
 
इस अल्फा मेल से सावधान रहिये , क्यूंकि प्यार सिर्फ कवि ह्रदय ही कर सकता है।  अल्फा मेल सिर्फ अधिकार जता सकता है और पाशविक सेक्स कर सकता हैं। वास्तव में अल्फा मेल जिस ज़माने में होता था तब प्यार होता ही नहीं था , तब सिर्फ उन्मुक्त यौन संबंध और प्रजनन होता था।  प्यार की उत्पत्ति ही कवि ह्रदय से हुई  है। 
 पूरी फिल्म में जिस तरह हिंसा दिखाई गयी है और लड़कियों को जैसे ट्रीट किया गया है वो भयावह है , वैसे फिल्म में सिर्फ हिंसा होती तो शायद मैं इसकी आलोचना न करता।  लेकिन हिंसा की आड़ में जो वाहियात फिलॉसफी झाड़ने की कोशिश की गयी है वो खतरनाक है।  रणविजय जैसे भाई जो  बहनों के रक्षक बने घूमते है वो दरअसल रक्षक न होकर उनपर अपना हक़ ज़माना चाहते हैं. जैसे  एक सीन में हीरो कहता है बड़ी  बहन की शादी के टाइम मैं छोटा था लेकिन तेरी  की शादी में मैं निर्णय  करूँगा , अगर तेरा चक्कर चल रहा हो तो उसे अभी ख़तम कर दे. बाकी पूरी फिल्म में ऐसे सीन भरे पड़े हैं जिनमे लड़कियों को गुलाम की तरह ट्रीट किया गया है चाहे वो रणवीर का करैक्टर हो या बॉबी का. 

बाकी इतना तो है की फिल्म का नाम ईमानदरी से रखा गया।  देखा जाए तो पूरी फिल्म में मर्द जानवरों जैसा ही बर्ताव करते हैं। बाकी  वांगा जैसे कुंठित लोगों से उम्मीद ही क्या की जा सकती है।  एक इंटरव्यू में वांगा कह रहा था कि जबतक लड़की को आप जंहा चाहे वँहा हाथ नहीं लगा सकते , गालियाँ नहीं दे सकते  उसे वो प्यार नहीं मानता।  तो दरअसल इन अल्फा मर्दों के पास सिर्फ शारीरिक ताक़त ही बची है दिमाग तो है नहीं , इसलिए वांगा जैसे बैलबुद्धि लोग पाशविकता  को अपनी वाहियात फिल्मों के माध्यम से स्वीकृति दिलाने में लगे हैं। थिएटरों में कई पापा के दुलारे अपनी हिंसक भावना को फिल्म में स्वीकृति मिलते देख तालियाँ पीटते और सीटियाँ बजाते मिल जाएंगे। ऐसे दुलारों से सावधान रहिये , और अगर लड़कियों को भी फिल्म पसंद आ रही है तो उनसे मुझे कुछ नहीं कहना। 

बाकी मैंने सुना है की रील्स और ४ लाइन के ट्वीट की वजह से अटेंशन स्पैन कम हो रहा है , इसलिए मैंने भी कम शब्दों में बात खत्म करने की कोशिश की।  एक आखिरी बात लोग ये तर्क देते हैं कि जब समाज ऐसा ही है तो फ़िल्म में उसे दिखाने में क्या बुराई है , तो बुराई कुछ नहीं है बस समाज मे हो रहे बुरे को आप आलोचनात्मक तरीक़े से दिखाईये । अगर गलत को महिमामंडित करके दिखाएंगे तो वो बिल्कुल गलत है।
 बाकी फ़िल्म के बारे में इंडियन एक्सप्रेस में सुभ्रा गुप्ता के रिव्यु की ये पंक्तियां काफी सटीक हैं :
" there is nothing to this pointless, vile tale: if I have to, I had rather watch real animals "
तो मेरी सलाह तो यही है की एनिमल  देखने हैं तो चिड़ियाघर जाईये , घूमना भी हो जायेगा। और अगर फ़िल्म देख ही रहे हैं तो सोचियेगा जरूर क्या ऐसा अल्फा मेल हम चाहते हैं??

बाकी आप गूगल पर " crime against women " न्यूज़ सेक्शन में सर्च कर लीजिये , आपको पता चल जाएगा कितने एनिमल्स इंसान के रूप में घूम रहे हैं. 


 

Sunday, November 5, 2023

फिलिस्तीनी संघर्ष का इतिहास

आज  के दौर में जब युवा  10  सेकंड की इंस्टाग्राम रील्स और 4  लाइन के व्हाट्सअप फॉरवर्ड से इतिहास और भूगोल सीखना चाहता है , ऐसे में उम्मीद कम ही है की कोई इतना बड़ा लेख पढ़ने की जरुरत समझेगा।  और मुझे पक्का यकीन है की इजराइल और फिलिस्तीन की जंग का इतिहास समझने की कोशिश शायद ही किसी ने की होगी , इसलिए इस संघर्ष की पूरी कहानी समयबद्ध तरीके से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।  हालाँकि इस पोस्ट में लिखी गयी ज्यादातर सामग्री सत्यम वर्मा द्वारा ' "इन्तिफादा " फिलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' किताब की भूमिका "गुलेल से निकला पत्थर और दिल से निकली कविता " से ली गयी है.

सत्यम वर्मा द्वारा लिखी गयी इस भूमिका के टाइटल के बारे में जानने के लिए आपको फिलिस्तीनियों के पूरे  संघर्ष को समझाना होगा , एक समय था जब इसरायली  दमन का प्रतिरोध करने के लिए निहथे युवा गुलेल और पत्थर लेकर बड़े बड़े हथियारों से  लैश इसरायली सैनिकों से भिड़ जाते थे।  इसी के साथ फिलिस्तीनी साहित्यकारों ने कविता को भी प्रतिरोध का हथियार बनाया।  प्रसिद्ध फिलिस्तीनी साहित्यकार और पत्रकार हसन कानाफानी ने लिखा है की 1948  के बाद फिलिस्तीनी साहित्य में एक नए  आंदोलन की नींव पड़ी जिसे निर्वासन का साहित्य कह सकते हैं न की शरणार्थी साहित्य. इसीलिए गुलेल और कविता इस संघर्ष के प्रतीक बन गए। 

 


तो ये सब शुरू कन्हा से हुआ ? सबसे पहली बार , पूर्वी यूरोप और यमन से 1881 -82  से 1903  तक ज़ायनवादी यहूदियों ने फिलिस्तीन आना शुरू किया , तब फिलिस्तीन पर ओट्टोमैन एम्पायर का कब्ज़ा था।  इस दौरान लगभग 25000 यहूदी फिलिस्तीन आये।  इस मूवमेंट को नाम दिया गया "First Aliyah "  जो मुख्यता फ्रांस द्वारा फण्ड किया गया था। 

दूसरी घुसपैठ हुई 1904  से 1914  के बीच , तब लगभग 40  हज़ार यहूदी यंहा आकर बस गए। 

अब थोड़ा पीछे लौटते हैं और जानते हैं कि अलग यहूदी राज्य की मांग कब शुरू हुई और अंतराष्ट्रीय स्तर पर क्या साज़िशें की गई , सबसे पहले 1896 में थियोडोर हर्जल नाम के एक पत्रकार ने फलीस्तीन या कंही और अलग यहूदी देश बनाने का प्रस्ताव "डेर जुडेन स्टाट " नाम के अखबार में किया था। 1897 में स्विटरज़लैंड में यहूदियों की पहली कांफ्रेंस हुयी और फिलिस्तीन में यहूदियों का घर बनाने का आह्वान किया गया , साथ ही विश्व यहूदीवादी संघठन की स्थापना की गयी।  1901 में हुई पांचवी अंतरराष्ट्रीय यहूदी कांफ्रेंस में एक राष्ट्रिय यहूदी कोष की स्थापना की गयी  उद्देश्य था फिलिस्तीन में ज़मीन हासिल करना और उसे यहूदी चरित्र प्रदान करना , इस मूवमेंट में दुनिया में सबसे ज्यादा बदनाम बैंकर रोथ्सचाइल्ड परिवार की भूमिका भी काफी ख़ास थी , इस परिवार ने एक तरह से इस पूरे ज़ायनवादी मूवमेंट को फण्ड किया।  1917 में बालफोर घोषणा के ज़रिये ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में यहूदी राज्य की स्थापना को  मंज़ूरी दे दी और  1918 में ब्रिटेन ने फिलस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया (ओट्टोमन एम्पायर अब तक कमज़ोर हो चूका था ). 

1919 में पहली फिलिस्तीनी राष्ट्रीय कांफ्रेंस येरुशलम  में आयोजित हुई और इसमें बालफोर घोषणा का विरोध किया गया , और पेरिस शांति सम्मलेन को पत्र भेजकर ब्रिटेन से फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की मांग की गयी।  और यही से फिलिस्तीन के दोहरे संघर्ष की कहानी शुरू हुई , यहूदी कब्ज़े और ब्रिटिश सामज्यवाद के खिलाफ।  इसी बीच यहूदियों का फिलिस्तीन में बसना बदस्तूर ज़ारी था , 1919  से 23  के बीच 35  हज़ार यहूदी यंहा बसाये गए। अगर ये सिलसिला सिर्फ  बसने तक सीमित रहता तो गनीमत थी लेकिन यहूदीवादियों ने तो गिरोह बनाकर फिलिस्तीनियों का सफाया करना शुरू कर दिया।  गिरोह बनाकर फिलिस्तीनी गाँवो  और मुहल्लों पर हमले किये जाने लगे और उन्हें  घर छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा।  यहूदीवादियों ने 1921  में हैगनाह  नाम से एक आतंकवादी गिरोह संगठित किया जो एक खतरनाक रूप में विकसित हुआ और इस संघठन ने फिलिस्तीनी गाँवों  पर बर्बर तरीके से हमले किये और उनके खेतों को जलाया साथ ही जो लोग भाग नहीं पाए उनका नरसंहार किया , और उनकी ज़मीने कब्ज़ा कर यहूदी बस्तियां बसाई गयीं. 

फिलिस्तीनियों ने इस दमन को देखते हुए 1922  में पांचवी  राष्ट्रिय कांफ्रेंस में यहूदियों के बहिष्कार का आह्वान किया जबकि इसी साल लीग ऑफ़ नेशंस ने फिलिस्तीन पर ब्रिटिश आधिपत्य को मंज़ूरी दे दी।  इसी साल ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में जनगणना करवाई जिसके अनुसार कुल जनसँख्या 7  लाख 57  हज़ार 182  थी जिसमें  78 % अरब मुसलमान (फिलिस्तीनी) , 9.6 % ईसाई और 11 % यहूदी थे. ये सारे यहूदी कुछ समय पहले ही  आये थे. इसी बीच व्लादिमीर ज्बुतिनस्की की यहूदीवादी पार्टी ने जॉर्डन नदी के पूर्वी तट पर यहूदी राज्य की स्थापना की मांग की (जॉर्डन नदी फिलिस्तीन के बीचों बीच बहती है ). इसी बीच यहूदियों के नए नए आतंकवादी संगठन बनते रहे , हैगनाह के भी कई टुकड़े हुए पर सबका लक्ष्य एक ही फिलिस्तीनी अरबों का नरसंहार और उनकी ज़मीन से बेदखल कर उसपे कब्ज़ा करना। 

अंतरराष्ट्रीय साज़िशें भी चलती रहीं , ब्रिटेन ने 1939  में एक श्वेतपत्र ज़ारी किया जिसमे पाँच साल तक प्रतिवर्ष 15  हज़ार यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाने की अनुमति दी गयी और इस शर्त पर 10  वर्ष बाद फिलिस्तीन को  स्वतंत्रता देने की बात भी कही गयी।  इसी समय हुए संघर्ष में 4000  फिलिस्तीनी यहूदियों द्वारा मारे गए और मरने वाले यहूदियों की संख्या थी 500 । 1943  में ब्रिटेन ने यहूदियों के आने की समय सीमा 5  साल और बढ़ा दी।  1946  तक फिलिस्तीन में यहूदी आतंकवादी संगठनों (स्टर्न , हैगनाह , इरगोन ) की संख्या 61  हज़ार से 69  हज़ार तक हो चुकी थी।  आंग्ल अमेरिकी कमिटी ने 1  लाख और यहूदियों को फिलिस्तीन आने की इजाज़त दे दी।  भूमि पर अधिकार कानून समाप्त कर  दिया गया।  फिलिस्तीनियों की अपनी  ज़मीन बचाने की लड़ाई चलती रही , अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध किया गया , ब्रिटेन और अमेरिका  चालें,  घात प्रतिघात चलते रहे।  14  मई 1948  में जब ब्रिटेन येरुशलम छोड़ा तो हैगनाह ने येरुशलम पर हमला कर  दिया और 14  मई को शहर के पुराने इलाके के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर लिया।  उसी दिन शाम को 4  बजे तेल अवीव में इसरायली राज्य की स्थापना की घोषणा कर दी गयी।  अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने तत्काल उसे मान्यता दे दी।  अगले दिन 15  मई को ब्रिटेन का अधिपत्य समाप्त हो गया और इजराइल अस्तित्व में आ गया।  जर्मनी में नाज़ियों के शिकार यहूदियों को दुनिया के एक बड़े हिस्से की साहनुभूति मिली , जबकि खुद यहूदियों  ने फिलिस्तीनियों पर वैसे ही हिंसा बरपानी शुरू ककर  दी और इसी समय शुरू हुआ नकबा (Nakba ) , नकबा अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है तबाही , और 1949  तक 7  लाख फिलिस्तीनियों को उनके घर और ज़मीनो से बेदखल ककर  दिया गया और 80  % ज़मीन पर यहूदियों ने कब्ज़ा कर लिया , 500  गाँवों को तबाह कर दिया गया , लगभग 4500  से 5000  फिलिस्तीनियों को मार दिया गया।  1950  के UNRWA के आकंड़ों के हिसाब से लगभग 46000  फिलिस्तीनी जो अब इजराइल द्वारा कब्ज़ा कर ली गयी ज़मीन पर थे उन्हें उनकी ही ज़मीन पर शरणार्थी का दर्ज़ा दिया गया और उनके घरों से बेदखल कर शरणार्थी शिविरों में भेज दिया गया।  यह संख्या 2003  के आंकड़ों के हिसाब से 2,74000  है , तबसे इजराइल लगातार फिलिस्तीनी ज़मीन पर कब्ज़ा करता जा रहा है और फिलिस्तीनियों को उनकी ही ज़मीन पर शरणार्थी बनाता जा रहा है। 


अमेरिका और ब्रिटेन , फ्रांस की फंडिंग से इसराइल दिन बी दिन मज़बूत होता चला गया , इसरायली आतंकवादी फिलिस्तीनियों के फसलों को बरबाद कर देते , उनके जैतून के वृक्षों को उखाड़ फेंकते उनकी पानी की सप्लाई बंद कर देते।  कभी भी किसी को गिरफ्तार कर लेते , घरों में घुसकर उनके बेटों  उठा ले जाते , बेवजह जेलों में बंद कर देते। इसी बीच दुनियाभर की तमाम संस्थाएं शांति की खोखली बातें करते रहे ,और इजराइल की हैवानियत बदस्तूर जारी रही , और फिलिस्तीनी इसरायली सेना  की सख्त घेरेबंदी के बीच जीने के लिए मज़बूर बने रहे. 

आखिरकार 1969  में यासेर अराफात ने पीएलओ ( फिलिस्तीनी लिबरेशन संस्था) का गठन किया , और संगठन को मजबूत करते रहे और 1987  में इजराइल के खिलाफ बगावत का ऐलान ककर  दिया जिसे पहला इन्तिफादा नाम दिया जाता है।  और 1988  में फिलिस्तीन राज्य की घोषणा कर दी , भारत समेत बहुत सारे देशों ने फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दी। इसी समय UN ने भी स्वतंत्र फिलिस्तीन को स्वीकार किया (लेकिन अलग देश का दर्ज़ा नहीं दिया) . पहला इन्तिफादा 5  साल 9  महीने चला जिसमे लगभग 2  हज़ार फिलिस्तीनी मारे गए और 200  इजराइल के सैनिक मरे. 1993  को ओस्लो एकॉर्ड समझौता हुआ , इस समझौते में तय किया गया की फिलिस्तीन की अपनी सरकार होगी,  इजराइल गज़ा और वेस्ट बैंक से अपनी सेनाएं हटा लेगा।  हालाँकि ये समझौता कभी पूरी तरह लागू  नहीं हो पाया। इजराइल ने गज़ा पट्टी में घेरेबंदी कर फिलिस्तीनी परिवारों को ही एक दूसरे से अलग कर दिया , जगह जगह चेक पॉइंट बनाये गए , जंहा से गुज़रने पर फिलिस्तीनी नौजवानों की वेबजह चेकिंग की जाती , गालिया दी जाती और उन्हें प्रताड़ित किया जाता। 

और सन 2000  में इजराइल पार्टी विपक्षी दल की पार्टी के मेंबर की अल अक़्सा विजिट  के बाद शुरू हुआ दूसरा इन्तिफादा , हालाँकि ये इन्तिफादा की वजह नहीं थी , इस बगावत की वजह थी इतने सालों से इजराइल की घेरेबंदी और अमानवीय व्यवहार। ये बगावत 2005  तक चली और फाइनली गज़ा पट्टी से इजराइल की सारी सेना वापस चली गयी।  

अब यंहा से इतिहास एक अलग मोड़ ले लेता है क्यूंकि साल 2006  में   PNA (Palestanian National  Authority) ने फिलिस्तीन  में चुनाव कराये जिसमें  बहुमत हमास को मिला , हालाँकि ये इलेक्शन इंटरनेशनल आब्जर्वर की देख रेख में हो रहे थे , और इन्होने हमास को सरकार नहीं बनाने दी। 

हमास कैसे पैदा हुआ और कैसे जनता के बीच इतना पॉपुलर हुआ ये जानना जरुरी है , हमास का गठन पहली बगावत के समय 1987  में ही हुआ था , और उस समय हमास जैसे संघठन को इजराइल और उसके आकाओं ने भी खूब बढ़ावा दिया ,  सोचने वाले बात है उन्होंने ऐसा क्यों किया ? दरअसल पहली बगावत में लड़ने वाली पीएलओ की संस्थाएं "फतह " "पॉपुलर फ्रंट " डेमोक्रेटिक फ्रंट " और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ फिलिस्तीन थे जो मुख्यता प्रगतिशील विचारोँ के समर्थक थे और दूसरा संघठन लड़ने के लिए खड़ा हुआ हमास जिसकी विचारधारा इस्लामिक कट्टरपंथ पर आधारित थी।  और इजराइल एवं अमेरिका के लिए ये अच्छा ही था की एक कट्टरपंथ पर आधारित संस्था खड़ी  हो जिसको बाद में बहाना बनाकर फिलिस्तीन पर हमले किये जा सकें (नेतन्याहू खुद कई बार ये स्वीकार कर चूका है कि हमास का होना हमारे लिए अच्छा है ). खैर 1987  में इजराइल को यकीन भी नहीं होगा कि एक दिन हमास जनता के बीच इतनी पैठ बना लेगा। 

और ये नाहक भी नहीं था , पहली इन्तिफादा से लेकर ऑस्लो एकॉर्ड के बाद भी इजराइल का दमन बदस्तूर ज़ारी रहा , कभी अल अक्सा में प्रार्थना कर रहे लोगों पर लाठी चार्ज तो कभी फायरिंग , किसी के खेत को नष्ट कर देना तो किसी को गोली मार देना।  ऐसे में हमास ही था जिसने इसरायलीओ को उन्ही की भाषा में जवाब देना शुरू किया और  नौजवानो को दमन के खिलाफ खड़ा किया। और ये इजराइल का बेइंतहा ज़ुल्म ही था जिसने नौजवान फिलिस्तीनियों को सुसाइड बम बनने को मज़बूर कर दिया।  हमास ने फिलिस्तीन के अंदर भी उन लोगों के खिलाफ संघर्ष किया जो इजराइल के साथ मिलकर नशे और वेश्यावृत्ति का धंधा करने लगे थे।  जंहा दुनियाभर की शांति की बकवास फेल हो रही थी और इजराइल  ऑस्लो एकॉर्ड के वावजूद आये दिन ज़मीन कब्ज़ा करता जा रहा था , ऐसे में जनता को हमास का रास्ता ही सही लगा और हमास को खूब समर्थन मिला।  कट्टरपंथी संघठन होने के बावजूद हमास ने गज़ा में काफी सुधार के काम किये और लोगों को नयी उम्मीद दी ( जिससे इजराइल के मसूबों पर पानी फिर गया ). और इसी की परिणीत थी की 2006  के इलेक्शन में जनता ने हमास  को चुना। हालाँकि अमेरिका और बाकी इजराइल समर्थकों ने हमास को सरकार बनाने नहीं दी ( उसका एक अलग इतिहास है कुछ महीने के लिए हमास ने सरकार बना ली फिर फतह ने उसे रिप्लेस करने की कोशिश कि ) और फाइनली 2007  में फतह और हमास के बीच संघर्ष हुआ जिसमे हमास ने गज़ा और फतह ने वेस्ट बैंक का कण्ट्रोल ले लिया। 

यंहा एक सबसे जरुरी बात जो रह गयी वो यह की हम मीडिया में सुनते आये हैं की गज़ा दुनिया की सबसे बढ़ी ओपन एयर  जेल है , तो यह बिलकुल सच है।  इसरायली  सेना ने गज़ा के आसपास पूरी घेराबंदी कर रखी है , समुद्र से लगे क्षेत्र में भी IDF के सैनिक गस्त करते रहते हैं और आये दिन फिलिस्तीनी मछुआरों की नावों को निशाना बनाते रहते हैं।  रोज़गार के लिए गज़ा के नौजवानो को इजराइल से पास बनवाना पड़ता है और रोज़ घंटो लाइन में लगकर , कई तरह के सुरक्षा जांचों से गुजरते हुए काम के लिए जाना पड़ता है।  इसरायली कभी भी पास रद्द कर देते हैं , किसी को भी काम पर जाने से रोक देते हैं , मारपीट करते हैं , ज़लील करते हैं।  सोचिये आपकी अपनी ज़मीन पर कब्ज़ा करने  के बाद कोई ऐसा सलूक करे। गज़ा में रोज़गार के कोई अवसर नहीं हैं , पूरा इलाका UNRWA  और आसपास के देशो के सहयोग से गुज़ारा करता है , और भी सारा राशन इजराइल की परमिशन के बाद ही गज़ा में जा सकता है , गज़ा में पानी और बिजली  की सप्लाई भी इसरायल कण्ट्रोल करता है।  कुल मिलाकर गज़ा के नागरिक एक नारकीय जीवन जीने को मज़बूर हैं। 

7  अक्टूबर के हमले से पहले 2023  में इजराइल अलग अलग कनफ्लिक्ट में 247  फिलिस्तीनियों का क़त्ल कर चूका था , गज़ा स्ट्रिप पे आवाजाही बंद कर रखी  थी और लोगों को काम पे नहीं जाने दिया जा रहा था।  

अब सबसे पहले तो एक बात साफ़ कर देना चाहता हूँ की हमास एक कट्टरपंथी संघठन है तो दुनिया में किसी भी कट्टरपंथी विचारधारा का समर्थन नहीं किया जा सकता।  लेकिन जिन हालातों  हमास खड़ा हुआ और जनता का सर्मथन जीता उन हालातों का ज़िम्मेदार इजराइल का आतंकवाद ही है।  शोषक के खिलाफ शोषित द्वारा की गयी हिंसा का ज़िम्मेदार शोषक ही होता है।  क्यूंकि आप खुद सोचिये की ज़ुल्म की इतनी इन्तहा शायद ही दुनिया के किसी और आबादी ने झेली होगी जो फिलिस्तीनी पीछे 75  सालों से झेल रहे हैं।  

बाकी पिछले 27  दिनों से प्रतिरोध के नाम पर इजराइल जो गज़ा में कर रहा है वो सबके सामने हैं।  इतने दिनों में इसरायली आतंकवादियों ने रिहाइशी बस्तियों ,अस्पतालों , रिफ्यूजी कैंपो , स्कूलों  पर बमबारी की है. गज़ा की इकलौती यूनिवर्सिटी को भी नेस्तनाबूद कर दिया।  UNRWA के स्कूल को निशाना बनाया गया जँहा बहुत सारे लोगों ने शरण ले रखी थी , पत्रकारों का क़त्ल  कर दिया।  घायलों को ले जाने वाली जाने कितनी एम्बुलेंसों को राकेट से उड़ा दिया।  पहले गज़ा छोड़ने का आदेश दिया और फिर कुछ लोग जो छोड़कर जा रहे थे उनके वाहनों पर बम गिरा कर मार डाला।  पानी बिजली की सप्लाई बंद कर  दी , इंटरनेट बंद कर दिया।  अब तक 12  हज़ार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं जिसमे 3500  से ज्यादा तो बच्चे ही है। सोचिये इसराएली आतंकवादियों ने जबालिआ शरणार्थी कैंप पर भी बमबारी कर दी और सैकड़ो बच्चों और आम नागरिकों का क़त्ल कर दिया , जबालिआ कैंप 1948 के नकबा के समय UN ने बनाया था जंहा अपने ही मुल्क में फिलिस्तीनियों को शरणार्थी बनना पड़ा और आज वंहा 1  लाख से ज्यादा लोग रहते हैं. UN जैसी संस्थाएँ ट्वीटर पर युद्धविराम की अपील कर रहे हैं , वोटिंग में USA , UK, फ्रांस सहित कई देशों ने युद्धविराम की मांग को ठुकरा दिया।  UN ट्वीटर पर युद्ध के नियमों को फॉलो करने की अपील कर रहा है लेकिन इसरायली आतंकवादी किसी की नहीं सुन रहे।  और अमेरिका , इंग्लैंड फ्रांस , ऑस्ट्रेलिया  जैसे देश इस नरसंहार को पूरा समर्थन और सहयोग दे रहे हैं।  पूरी गज़ा पट्टी  को मलबे में तब्दील कर दिया है , इतने सारे नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया और अभी जाने कितने और मारे जाएंगे ,ऐसे में आप खुद तय करिये की आतंकवादी कौन है। 7 अक्टूबर के हमले के बाद इजरायल ने सबको बताया की हमास ने 40 बच्चों का सरकलम कर दिया , बाइडेन ने भी एक प्रेस कांफ्रेंस में इस बात का जिक्र किया , लेकिन बाद में पता चला की ये झूठ था और वाइट हाउस ने भी कन्फर्म करने से मना कर दिया।  इतने दिनों से ट्वीटर पर इसरायली हैंडल्स को देखिये तो न जाने कितनी झूठी अफवाएँ फैलाई गयी हैं।  सोचिये ये सब झूठ क्यों फैलाया गया ? लोगों के दिमाग में एक इमेज बनाने के लिए की सारे फिलिस्तीनी बर्बर हैं और उनके क़त्ल को जायज़ ठहराया जा सके। 



आपको लग सकता है की यह पूरा आर्टिकल एकतरफा हैं , तो यकीन मानिये इसे एक तरफा ही होना था।  क्यूंकि ज़ायनवादियों ने जिस तरह ज़मीन कब्ज़ा कर एक देश बनाया वो अपने आप में गलत था।  ये सच है की नाज़ियों ने यहूदियों पर बहुत क्रूरता की , लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं हो सकताकि  इससे उन्हें वही क्रूरता किसी और के साथ करने का अधिकार मिल जाता है , और किसी और को ज़मीन से बेदखल कर खुद का देश बनाने का तो मसला ही समझ से परे है।  और ज़ायनवादियों की बर्बरता को वर्षों से झेलते आ रहे नौजवानों  का प्रतिरोध हिंसक होना ही था।  आप खुद सोचिये की एक तरफ इजराइल को अमेरिका और यूरोपियन देशो का पूरा समर्थन प्राप्त है जो आये दिन इजराइल तो आतंकवाद के लिए बड़े बड़े आधुनिक हथियार और तकनीक मुहैया कराते रहें हैं और एक तरफ गुलेल और पत्थर से प्रतिरोध करने वाले नौजवान।  ऐसी परिस्थिति में कोई भी हिंसा का रास्ता अपना ले।  वो कहते हैं न अगर फिलिस्तीनी लड़ना बंद कर देते तो इजराइल अब तक उनका नामों निशान मिटा देता। और फिलिस्तीनियों की तो आज तीसरी पीढ़ी इस संघर्ष के लिए मज़बूर है.

आज दुनिया भर के देशों में आम जनता फिलिस्तीन के समर्थन में सड़कों पर है , अमेरिका में आज ३ लाख लोगों ने वाइट हाउस को घेरकर बाइडेन के खिलाफ प्रदर्शन किया , बाकी फ्रांस , जापान ,जर्मनी , इंग्लैंड हर जगह लोग फिलिस्तीन का झंडा लेकर सडकों पर हैं।  और सच्चाई तो  ये भी है की इजराइल में भी इन्साफ पसंद यहूदी नेतन्याहू के नरसंहार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। जिस तरह मासूम बच्चों का क़त्ल गज़ा में किया जा रहा है , कोई भी सोचने समझने वाला इंसान इजराइल का साथ नहीं दे सकता।  दरअसल ऐसे समय में भी जो  इजराइल का साथ दे रहा है वो इंसान है ही नहीं , वो बस एक बर्बर जानवर से ज्यादा कुछ नहीं। 



अंत में फिलिस्तीनी कवि समीह अल कासिम की एक कविता के कुछ अंश  :

आओ मेरी ज़मीन का 

आखिरी टुकड़ा भी चुरा लो 

जेल की कोठरी में 

मेरी जवानी झोंक दो 

मेरी विरासत लूट लो 

मेरी किताबें जला दो 

मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ 

जाओ मेरे गाँव की छतों पर 

अपने आतंक के  जाल फैला दो 

इंसानियत के दुश्मन 

मैं समझौता नहीं करूँगा 

और आखिर तक मैं लडूंगा 

मैं लडूंगा.



बाकी आप  गज़ा में  रहने वाले बच्चों का संघर्ष समझने के निचे दिए लिंक पर  डॉक्यूमेंट्री "Born in Gaza" देख सकते हैं 

https://www.youtube.com/watch?v=8JNzI80sPgw

साथ ही गज़ा के लोगों को काम की तलाश में कितना कुछ झेलना पड़ता है और कैसे इसरायल ने पूरे गज़ा को जेल में तब्दील कर रखा है वो इस फिल्म "200 Meters" में दिखाया गया है 

https://www.youtube.com/watch?v=G8abgkCO_rU


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Reference:

1. First two pics are from google photos, showing the image of "Handala" created by Palestinian Cartoonist Naji-Al Ali. This Handala became a symbol of Palestinian resistance. Third pic from Yemen new agency saba's website. and last pic from WSJ USA protest in front of White house.

2. All dates and events are from Wikipedia ("First Intifada , "Second Intifada" , "Hamas" , "Hamas Fateh Conflict" , Oshlo Accord" etc).

3. Latest figure are from various news channels showing these days, deaths in Palestine increasing minute by minute.

4. Early historical facts taken from Book "Intifada" Collection of Palestinian peoms. written by Satyam Verma.


Saturday, June 3, 2023

धर्म नहीं , पुरुष प्रधान पितृसत्ता ज़िम्मेदार है स्त्रियों पर होने वाले जघन्य अपराधों के लिए।

अभी हाल ही में हुई कुछ घटनाओं पर नज़र डाले तो एक बात कॉमन है की किसी लड़की की हत्या बर्बरता से की गयी है , जैसे आफताब ने अपनी गर्लफ्रेंड को टुकड़े टुकड़े कर फ्रिज में भर दिया , या साहिल ने साक्षी को चाकू से गोदकर मार  डाला और सर को पत्थर से कुचल दिया , अभी  कल मुंबई में पुलिस को  बिना सर की एक लड़की की लाश मिली जांच में पता चला कि उसके पति  मिंटू  सिंह और भाई ने मिलकर उसकी हत्या की क्योंकि उन्हें उसके चरित्र पर शक था , आगरा में एक हिन्दू बाप अपनी बेटी को मारकर सूटकेस में भरकर फेंक देता है क्यूंकि उसने बाप की मर्ज़ी के बिना शादी कर ली , सूरत में एक बाप अपनी बेटी को चाक़ू से गोदकर मार देता है , दिल्ली में ही २४ साल का  साहिल गहलोत  अपनी शादी के दिन गर्लफ्रेंड को मारकर  लाश फ्रिज में छिपा देता है और उसके बाद शाम को धूमधाम से शादी करता है।  इस तरह की सैकड़ों घटनाएं देश में रोज़ हो रही है जंहा गुनाह करने वाला कभी हिन्दू होगा तो कभी मुसलमान , और वो दूसरे धर्मों का भी हो सकता है।  एक बात कॉमन है की ऐसे गुनाह करने वाला पुरुष है और मरने वाली औरत , क्यूँ ? क्यूंकि आप किसी भी धर्म को मानते हों सभी पितृसत्ता का ही समर्थन करते नज़र आएंगे , और धर्म चाहे कोई भी हो समाज है पुरुष प्रधान ही।  और इस समाज में स्त्रियों को पुरुष हमेशा सम्पत्ति के रूप में देखता है और उसे अपना ग़ुलाम  समझता है। और ऐसे समाज में जब पुरुष को लगता है स्त्री अपनी मर्ज़ी से निर्णय ले रही है और अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से जीना चाहती है तो पुरुष के अहं को चोट पहुँचती है उसे लगता है मैं जिसे अपना ग़ुलाम समझता हूँ वो मेरी मर्ज़ी के बिना कैसे निर्णय ले सकती है।  और ऐसे में वो सबक सिखाने के लिए बर्बरता पर उतर आता है। यह बर्बरता बिलकुल वैसी ही है जैसी ग़ुलामी प्रथा में मालिक अपने ग़ुलामो पर करते थे।  


इन घटनाओं में एक अंतर और देखने को मिलता है वो यह कि जंहा अपराध करने वाला मुसलमान हैं वँहा मीडिया दिनरात कवरेज करेगा और लव जिहाद और क्रूरता का रोना रोयेगा , लेकिन जंहा अपराध करने वाला हिन्दू है (हालाँकि क्रूरता वंहा भी हुई है ) उस घटना पर कोई रिपोर्टिंग नहीं होती। जिससे साफ़ पता चलता है की मीडिया में सनसनी फ़ैलाने वालों का मुख्य एजेंडा देश में सांप्रदायिक नफरत फ़ैलाने का है , अपराध और उसके मूल कारणों से उनका दूर दूर तक कोई नाता नहीं।   सच्चाई तो ये है की ये जितने भी बजरंगी  हिन्दुओं में रहनुमा बने घूम रहे है ये खुद उसी पुरुष प्रधान मानसिकता से पीड़ित हैं , ये वैलेंटाइन डे पर पार्कों और रेस्त्रां में लड़के लड़कियों को पीटते नज़र आएंगे , इनके खुद के घर में देखा जाएँ को ये आये दिन अपनी पत्नियों  बेटियों को पीटते नज़र आएंगे। ये पुरुष प्रधानता आपको रोज़ मर्रा कि ज़िन्दगी में देखने को मिल जायेगी , किसी को लड़की के सर पर पल्लू चाहिए तो किसी को उससे खाना बनवाना है कोई आपको कहता मिल जाएगा कि औरत को हमेशा मर्द की बात माननी चाहिए , मर्द से दबकर रहना चाहिए। कभी लड़की जबाव दे दे तो  मर्दों का रोआँ दुखी हो जाता है की लड़की होकर इतनी मज़ाल।  लड़कियां हमेशा इनके लिए अपनी मर्दानगी साबित करने का जरिया रही हैं , फलां लड़की मेरी गर्लफ्रेंड न बनकर दूसरे के साथ क्यों घूम  रही है , या

मेरी बेटी या बहन मेरी मर्ज़ी के बिना कैसे शादी कर सकती है , मेरी पत्नी ने हिम्मत कैसे की मेरा आदेश न मानने की।  और धर्मों की बात ही करना बेकार है किसी भी धर्म गुरु या मौलवी को सुन लीजिये सब एक से एक स्त्री विरोधी बातें  नज़र आएंगे , राम रहीम और आशाराम को तो हम देख ही चुके हैं , ऐसे ही आरोप आपको मौलवियों और पादरियों पर भी मिल जायेंगे ।  
  


अब बात करते है ऐसे अपराधों पर एनकाउंटर की समर्थन करने वालों की , दरअसल हत्या और  मृत्युदंड में मूलभूत अंतर है , हत्या एक विकृत मानसिकता वाला अपराधी करता है और मृत्युदंड एक सभ्य समाज में अपराधी को सजा देने का प्रावधान है।  सभ्य समाज को हत्या के बदले हत्या का समर्थन नहीं करना चाहिए।  हाँ जघन्य अपराधों में मृत्युदंड देने के तरीके क्रूर और बर्बर हो सकते हैं जिससे की ऐसे अपराधियों में भय पैदा किया जा सके।  और दूसरी बात ऐसे अपराधों में न्यायालय को भी पहली सुनवाई में ही फैसला सुना देना चाहिए और ऐसे अपराधियों को अपील करने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए जंहा साफ़ तौर पर सबूत अपराध को साबित करते हैं. न्यायालय में लगने वाली देरी और अपीलों की वजह से ही आज समाज हत्या के बदले हत्या का समर्थन करने लगा है  , जबकि सभ्य समाज में ऐसी नौबत आनी ही नहीं चाहिए थी। 


बाकी आप एनकाउंटर कर दीजिये , सजा बर्बर तरीके से दे दीजिये लेकिन ऐसे अपराधों पर तबतक लगाम नहीं लगा पाएंगे जबतक समाज स्त्रियों के प्रति अपना नजरियां नहीं बदलता , जबतक उन्हें संपत्ति समझना बंद नहीं कर  दिया जाता। कुछ लोग इस बात से असहमत हो सकते हैं , लेकिन ये वही लोग हैं जिन्होंने मेट्रो सिटीज में कुछ लड़कियों को स्वछंदता से जीवन जीते देखा है , लेकिन मेट्रो सिटीज में दिखने वाला ये बराबरी का जीवन दरअसल असली भारत की हक़ीक़त  कंही दूर हैं , गांव  और गरीब बस्तियों में हक़ीक़त कुछ और ही है।  बाकी मेट्रो सिटीज के सभ्य समाज के बंद कमरों में भी आपको कितनी ही अत्याचार की कहानियां मिल जाएंगी , आफताब और श्रद्धा का केस ही इसका एक उदहारण है। पुरुष प्रधान मानसिकता को बदलने के लिए समाज को अभी एक लम्बा सफर तय करना है , जो सिर्फ अच्छे साहित्य और कला से ही संभव है , एक वैचारिक क्रांति से ही संभव है , तब आप कैंडल मार्च निकालते रहिये।     

आर्टिकल में दी गयी सभी घटनाओं के मीडिया लिंक :

https://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/sahil-khan-kills-sakshi-inside-details-of-delhi-teens-brutal-murder/articleshow/100613255.cms?from=mdr

https://indianexpress.com/article/cities/mumbai/husband-brother-in-law-arrested-for-murdering-chopping-womans-body-in-maharashtra-8644072/

https://www.indiatoday.in/crime/story/man-stabs-daughter-over-domestic-dispute-surat-video-2386698-2023-05-31

https://www.ndtv.com/india-news/aayushi-chaudhary-murder-case-father-shot-the-22-year-old-woman-whose-body-was-found-in-suitcase-in-mathura-3539814

https://www.hindustantimes.com/india-news/shraddha-walkar-killing-case-aftab-poonawala-charged-for-murder-101683609544768.html

https://www.thehindu.com/news/cities/Delhi/man-kills-girlfriend-and-hides-body-in-fridge-gets-married-same-day/article66509915.ece