Tuesday, December 5, 2023

अल्फा मेल और एनिमल

 
वैसे  हमारे समाज में न जाने कितने बाप , भाई , बॉयफ्रेंड , पति अल्फा मेल एनिमल बने घूम रहे हैं , याद रखिये ये एनिमल प्यार करना जानते ही नहीं , इनका प्यार बस अधिकार जताने का तरीका है।  ये वही अल्फा मेल हैं जो बेटी या बहन के अपनी मर्ज़ी शादी करने पर काट के फेंक देते हैं ,  ये वही पति और ससुर है जो दहेज़ न मिलने पर बहु को जलाकर मार देते हैं , ये वही बॉयफ्रेंड हैं जो गर्लफ्रेंड  की न बर्दास्त नहीं कर पाते और उन्हें चाकुओं से गोद कर मार डालते हैं।  कई माएं , सासें और लड़कियां  अल्फा मेल को स्वीकृति देती मिल जाएगी लेकिन याद रखिये इनका प्यार इतना छिछला और दिखावे भरा है की ज़रा सा अधिकार कम होते दिखा की ये अपने हिंसक रूप में सामने आ जाते हैं।  दरअसल  अल्फा मेल का कांसेप्ट है ही उस बर्बर समाज का जब सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। और अभी भी हमारे समाज में संदीप रेड्डी वांगा जैसे जानवर उस बर्बरता को स्वीकृति दिलाने में लगे हुए हैं कभी कबीर सिंह के रूप में तो कभी रणविजय सिंह के रूप में।
 
इस अल्फा मेल से सावधान रहिये , क्यूंकि प्यार सिर्फ कवि ह्रदय ही कर सकता है।  अल्फा मेल सिर्फ अधिकार जता सकता है और पाशविक सेक्स कर सकता हैं। वास्तव में अल्फा मेल जिस ज़माने में होता था तब प्यार होता ही नहीं था , तब सिर्फ उन्मुक्त यौन संबंध और प्रजनन होता था।  प्यार की उत्पत्ति ही कवि ह्रदय से हुई  है। 
 पूरी फिल्म में जिस तरह हिंसा दिखाई गयी है और लड़कियों को जैसे ट्रीट किया गया है वो भयावह है , वैसे फिल्म में सिर्फ हिंसा होती तो शायद मैं इसकी आलोचना न करता।  लेकिन हिंसा की आड़ में जो वाहियात फिलॉसफी झाड़ने की कोशिश की गयी है वो खतरनाक है।  रणविजय जैसे भाई जो  बहनों के रक्षक बने घूमते है वो दरअसल रक्षक न होकर उनपर अपना हक़ ज़माना चाहते हैं. जैसे  एक सीन में हीरो कहता है बड़ी  बहन की शादी के टाइम मैं छोटा था लेकिन तेरी  की शादी में मैं निर्णय  करूँगा , अगर तेरा चक्कर चल रहा हो तो उसे अभी ख़तम कर दे. बाकी पूरी फिल्म में ऐसे सीन भरे पड़े हैं जिनमे लड़कियों को गुलाम की तरह ट्रीट किया गया है चाहे वो रणवीर का करैक्टर हो या बॉबी का. 

बाकी इतना तो है की फिल्म का नाम ईमानदरी से रखा गया।  देखा जाए तो पूरी फिल्म में मर्द जानवरों जैसा ही बर्ताव करते हैं। बाकी  वांगा जैसे कुंठित लोगों से उम्मीद ही क्या की जा सकती है।  एक इंटरव्यू में वांगा कह रहा था कि जबतक लड़की को आप जंहा चाहे वँहा हाथ नहीं लगा सकते , गालियाँ नहीं दे सकते  उसे वो प्यार नहीं मानता।  तो दरअसल इन अल्फा मर्दों के पास सिर्फ शारीरिक ताक़त ही बची है दिमाग तो है नहीं , इसलिए वांगा जैसे बैलबुद्धि लोग पाशविकता  को अपनी वाहियात फिल्मों के माध्यम से स्वीकृति दिलाने में लगे हैं। थिएटरों में कई पापा के दुलारे अपनी हिंसक भावना को फिल्म में स्वीकृति मिलते देख तालियाँ पीटते और सीटियाँ बजाते मिल जाएंगे। ऐसे दुलारों से सावधान रहिये , और अगर लड़कियों को भी फिल्म पसंद आ रही है तो उनसे मुझे कुछ नहीं कहना। 

बाकी मैंने सुना है की रील्स और ४ लाइन के ट्वीट की वजह से अटेंशन स्पैन कम हो रहा है , इसलिए मैंने भी कम शब्दों में बात खत्म करने की कोशिश की।  एक आखिरी बात लोग ये तर्क देते हैं कि जब समाज ऐसा ही है तो फ़िल्म में उसे दिखाने में क्या बुराई है , तो बुराई कुछ नहीं है बस समाज मे हो रहे बुरे को आप आलोचनात्मक तरीक़े से दिखाईये । अगर गलत को महिमामंडित करके दिखाएंगे तो वो बिल्कुल गलत है।
 बाकी फ़िल्म के बारे में इंडियन एक्सप्रेस में सुभ्रा गुप्ता के रिव्यु की ये पंक्तियां काफी सटीक हैं :
" there is nothing to this pointless, vile tale: if I have to, I had rather watch real animals "
तो मेरी सलाह तो यही है की एनिमल  देखने हैं तो चिड़ियाघर जाईये , घूमना भी हो जायेगा। और अगर फ़िल्म देख ही रहे हैं तो सोचियेगा जरूर क्या ऐसा अल्फा मेल हम चाहते हैं??

बाकी आप गूगल पर " crime against women " न्यूज़ सेक्शन में सर्च कर लीजिये , आपको पता चल जाएगा कितने एनिमल्स इंसान के रूप में घूम रहे हैं.